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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् मिथ्यादृष्टियोंने सर्वथा एकान्तरूप सैकड़ों दुर्नीतियोंसे जगतको अतिसघनअन्धकारके समूहमें लुप्तालोक (प्रकाशरहित) कर दिया है अर्थात् हिताहितके मार्गसे विभ्रमरूप कर दिया है। इस कारण आचार्य महाराज कहते हैं कि, हे ज्ञानी आत्मन्! तू परमतरूप अतुल अंधकारके समस्त समूहोंको दूरकरके भव्यजीवोंको आनंददेनेवाले मोक्षरूपी घरको प्राप्त कर । भावार्थ-अन्यमतावलंबी एकान्ती विद्वानोंने सर्वथा एकान्तरूप कुनयको ग्रहण करके जगतके जीवोंको मिथ्यामार्गमें लगा दिया है । अतः ज्ञानी पुरुषोंको चाहिये कि, स्याद्वादनयको प्रगट करके यथार्थमार्गकी प्रवृत्ति करें, क्योंकि वस्तुका खरूप सर्वथा एकान्तरूप नहीं है अर्थात् सर्वथा नित्यमें, सर्वथा अनित्यमें, सर्वथा एकमें, अनेकमें तथा सर्वथा शुद्धमें अथवा अशुद्धमें इत्यादि सर्वथा एकान्तनयसे आत्मामें ध्याता ध्यान ध्येय फलादि भेदरूप परिणाम सिद्ध नहीं होते। इसलिये अन्यवादी जो ध्यानकी कथनी करते हैं, वह भ्रममात्र है और स्याद्वादसे अनेक धर्मरूप वस्तुमें सब ही सिद्ध होते हैं । इस कारण स्याद्वादमार्गका शरण लेकर ध्यानका साधन करना उचित है। ऐसा. उपदेश है ॥ ३६॥ दोहा। अशुभ क्रोध आदिक तजो, दया क्षमा शुभ धारि। शुद्धभावमें लीनहै, कर्मपाश निरवारि ॥१॥ इस प्रकार संक्षेपसे अध्यात्मशास्त्रकी अपेक्षा शुभाशुभशुद्धपरिणाम खरूप ध्यानके तीन प्रकारके खरूपोंका वर्णन किया। इति ज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे श्रीशुभचन्द्राचार्यविरचिते संक्षेपतो ध्यानलक्षणम् ॥ ३ ॥ अथ गुणदोषविचारः। आगे विस्ताररूप ध्यानके प्रकारका प्रकरणमें प्रथम ही ध्यानका लक्षण चार प्रकारका है, उसे कहते हैं,- यचतुर्थी मतं तज्ज्ञैः क्षीणमोहै नीश्वरैः। पूर्वप्रकीर्णकाङ्गेषु ध्यानलक्ष्म सविस्तरम् ॥१॥ . . अर्थ-ध्यानके जाननेवाले क्षीणमोह मुनीश्वरोंने सविस्तर ध्यानका लक्षण पूर्वप्रकीर्णकसहित द्वादश अंगोंमें चार प्रकारका माना है ॥१॥ शतांशमपि तस्याद्य न कश्चिवक्तुमीश्वरः। . तदेतत्सुप्रसिद्ध्यर्थं दिमात्रमिह वर्ण्यते ॥२॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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