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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् एतासु प्रगुणीकृतासु नियतं मुक्त्यङ्गना जायते सानन्दा प्रणयप्रसन्नहृदया योगीश्वराणां मुदे ॥३॥ अर्थ-आचार्य महाराज कहते हैं कि, मित्र! ये बारह भावनायें निश्चयसे मुक्तिरूपी लक्ष्मीकी सखी है। इन्हें मुक्तिरूपी लक्ष्मीके संगमकी लालसा करनेवाले पंडितगणोंने मित्रता करनेके अर्थ प्रयोगरूप कहीं हैं । इन भावनाओंके अभ्यास करनेसे मुक्तिरूपी स्त्री आनन्दसहित नेहरूप प्रसन्नहृदय होकर योगीश्वरोंको आनन्ददायिनी होती है। भावार्थ-पंडितोंने भावनाओंको मोक्षकी सखीके तुल्य कही है । योगीश्वर इनको भावते हैं, तो ये उन्हें मुक्तिरूपी स्त्रीसे मिला देती हैं । इस प्रकार भावनाओंका वर्णन किया ॥३॥ इसका अभिप्राय यह है कि, इस ग्रन्थमें ध्यानका अधिकार है और ध्यान मोक्षका कारण है । जव तक जीवोंकी संसारमें प्रीति रहती है, तब तक उसका ध्यानके सन्मुख होना कठिन है । और बारह भावनायें संसारदेहभोगोंसे वैराग्य उपजानेकेलिये निमित्त हैं, इस कारण इनका वर्णन पहिले ही किया गया है । प्रथम तो यह प्राणी अनादिकालसे पर्यायबुद्धि है, इसे द्रव्यबुद्धि कभी भी नहिं हुई । इस कारण द्रव्यबुद्धि करनेकेलिये पर्यायको अनित्य दिखलाई है क्योंकि इससे वैराग्य होकर ध्यानकी रुचि होती है। दूसरे--यह प्राणी जवलग अज्ञानसे परका शरण चाहता रहता है, तब तक इसके ध्यान नहीं होता, इस कारण परका शरण छुडाकर अपना ही शरण बताया है। तीसरे-संसारमें दुःख ही दिखाये हैं । चौथे-अपना अकेलापना दिखाया है। जगतमें कोई भी संगी साथी नहीं है। पांचवें-अन्यके संगसे मोह उत्पन्न होता है, अतः अपनेको सबसे भिन्न बताया है। छठे-आस्रवसे कर्मबन्ध होना बताया है। सातवें-संवरसे कर्मों का रुकना और ध्यानकी सिद्धि बताई है । आठवे-निर्जराका कारण ध्यान तथा निर्जरासे ध्यानकी वृद्धि होना बताया है । नववे-लोकका खरूप जाननेसे मिथ्याश्रद्धान नष्ट होता है, इस कारण लोकका खरूप बताया है। दशव-धर्म, ध्यानका खरूप है अतः धर्मका खरूप बताया है। बारहवें-बोधिदुर्लभता बताई है और इसके संयोग मिलनेसे प्रमादी नहीं होना चाहिये ऐसा उपदेश किया है । इस प्रकार बारह भावनाओंका खरूप जानकर इनकी निरन्तर भावना भावनेसे ध्यानकी रुचि होती है तथा ध्यानमें स्थिर होनेसे केवलज्ञान उत्पन्न होकर मोक्ष प्राप्त होता है। इति श्रीज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे श्रीशुभचन्द्राचार्यविरचिते द्वादशभावनाप्रकरणम् ॥१२॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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