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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ५६ 1 जो (समस्तद्रव्य) अपने अपने स्वभावको लिये हुए भिन्न भिन्न तिष्ठते हैं । उनमें आप एक आत्मद्रव्य है । उसका स्तरूप यथार्थ जानकर, अन्य पदार्थो से ममता छोडके, आत्मभावन करना ही परमार्थ है । व्यवहारसे समस्तद्रव्यों का यथार्थस्वरूप जानना चाहिये, जिससे मिथ्याश्रद्धान दूर हो जाता है । इस प्रकार लोकभावनाका चितवन करना चाहिए ॥११॥ 1 लोकस्वरूप विचार, आतमरूप निहारि ।' परमारथ व्यवहार मुणि, मिध्याभाव निवारि ॥ ११ ॥ इति लोकभावना ॥ ११ ॥ अथ बोधिदुर्लभ भावना लिख्यते । आगे बोधिदुर्लभभावनाका व्याख्यान करते हैं, जिसमें निगोदसे लेकर सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिपर्यन्तकी उत्तरोत्तर दुर्लभता दिखाते हैं, --- बुरन्तदुरितारातिपीडितस्य प्रतिक्षणम् । कृच्छ्रान्नरकपातालतलाज्जीवस्य निर्गमः ॥ १ ॥ अर्थ - बुरा है अन्त जिसका ऐसे पापरूपी वैरीसे निरन्तर पीडित इस जीवका प्रथम तो नरकों के नीचे निगोदस्थान है, सो वहां की नित्यनिगोदसे निकलना अत्यंत कठिन है ॥ १ ॥ तथा तस्माद्यदि विनिष्क्रान्तः स्थावरेषु प्रजायते । सत्वमथवानोति प्राणी केनापि कर्मणा ॥ २ ॥ अर्थ-उस नित्यनिगोदसे निकला तो फिर पृथिवीकायादि स्थावरजीवों में उपजता है । और किसी पुण्यकर्मके उदयसे स्थावरकायसे त्रसगति पाता है ॥ २ ॥ औरपर्यासस्तथा संज्ञी पश्चाक्षेऽवयवान्वितः । तिर्यक्ष्वपि भवत्यङ्गी तन स्वल्पाशुभक्षयात् ॥ ३ ॥ अर्थ - कदाचित् त्रसगति भी पावे, तो तिर्यञ्चयोनिमें पर्याप्तता ( पूर्णावयवसंयुक्तत्व ) पाना कुछ न्यूनपापके क्षयसे नहिं होता है अर्थात् बहुत पापके क्षय होने पर पाता है । उसमें भी मनसहित पञ्चद्रियपशुका शरीर पाना बहुत ही दुर्लभ है, तिसपर भी सम्पूर्ण अवयब पाना अतिशयदुर्लभ है ॥ ३ ॥ १ ( ज्ञात्वा ) समझकर |
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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