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________________ ५४ राय चन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् दोहा । दर्श-ज्ञानमय चेतना, आतमधर्म वखानि । दया क्षमादिक रतन त्रय, यामै गर्मित जानि ॥ १० ॥ इति धर्मभावना ॥ १० ॥ अथ लोकभावना लिख्यते । अब लोकभावनाका व्याख्यान करते हैं । प्रथम लोकका स्वरूप कहते हैं,यत्र भावा विलोक्यन्ते ज्ञानिभिश्चेतनेतराः । जीवादयः स लोकः स्यात्ततोऽलोको नभः स्मृतः ॥ १ ॥ अर्थ- जितने आकाशमें जीवादिक चेतन अचेतन पदार्थ ज्ञानी पुरुषोंने देखे हैं, सो तो लोक है । उसके बाह्य जो केवल मात्र आकाश है, उसे अलोक वा अलोकाकाश कहते हैं ॥ १ ॥ वेष्टितः पवनैः प्रान्ते महावेगैर्महाबलैः । त्रिभित्रिभुवनrati लोकस्तालतरुस्थितिः ॥ २ ॥ अर्थ — तीन भुवनसहित यह लोक अन्तमें सब तरफसे अतिशय वेगवाले और अतिशय बलिष्ठ तीन वातबलयोंसे वेष्टित है और ताड़वृक्षके आकार सरीखा है अर्थात् नीचेसे चौड़ा, बीचमें सरल तथा अन्तमें विस्ताररूप है ॥ २ ॥ निष्पादितः स केनापि नैव नैवोद्धृतस्तथा । न भग्नः किन्त्वनाधारो गगने स स्वयं स्थितः ॥ ३ ॥ अर्थ - यह लोक किसीके द्वारा बनाया नही गया है अर्थात् अनादि निधन है । भिनधर्मीगण इसे ब्रह्मादिकका बनाया हुआ कहते हैं सो मिथ्या है । तथा किसीसे धारण किया हुआ वा थांगा हुआ हो, सो भी नहीं है । अन्यमती कच्छपकी पीठपर अथवा शेषनाग फनपर ठहरा हुआ कहते हैं, यह उनका भ्रम है । यदि कोई आशंका करै कि, विना आधारके आकाशमें कैसे ठहरेगा भग्न हो जायगा ? तो उत्तर देना चाहिने कि, निराधार होनेपर भी भग्न नहिं होता अर्थात् आकाश में बातबलयके आधार स्वयमेव स्थित है ॥ ३ ॥ अनादिनिधनः सोऽयं स्वयं सिद्धोऽप्यनश्वरः । अनीश्वरोऽपि जीवादिपदार्थैः संभृतो भृशम् ॥ ४ ॥ अर्थ---यद्यपि यह लोक अनादिनिधन है, स्वयंसिद्ध है, अविनाशी है और इसका
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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