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________________ रामचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् न सम्यग्गदितुं शक्यं यत्स्वरूपं कुदृष्टिभिः । हिंसाक्षपोषकैः शास्त्रैरतस्तैस्तन्निगद्यते ॥ ३ ॥ . अर्थ — धर्मका स्वरूप मिथ्यादृष्टियों, तथा हिंसा और इन्द्रियविपयपोषण करनेवाले शास्त्रोंके द्वारा भले प्रकार नहिं कहा जा सकता । इस कारण इस धर्मका वास्तविक - स्वरूप हम कहते हैं ॥ ३ ॥ ५० चिन्तामणिर्निधिर्दिव्यः स्वर्धेनुः कल्पपादपाः । धर्मस्यैते श्रिया सार्द्धं मन्ये भृत्याश्चिरन्तनाः ॥ ४ ॥ अर्थ - आचार्य महाराज कहते हैं कि “लक्ष्मीसहित चिन्तामणि, दिव्यनवनिधि, कामधेनु और कल्पवृक्ष, ये सब धर्मके चिरकालसे किंकर ( सेवक ) हैं, ऐसा मैं मानता हूं ॥ ४ ॥ धर्मो नरोरगाधीशन कनायकवाञ्छिताम् । अपि लोकत्रयीपूज्यां श्रियं दत्ते शरीरिणाम् ॥ ५॥ अर्थ — धर्म, जीवोंको 'चक्रवर्ती धरणीन्द्र तथा देवेन्द्रोंद्वारा वांछित और त्रैलोक्यपूज्य तीर्थंकरकी लक्ष्मीको देता है ॥ ५ ॥ धर्मों व्यसन संपाते पाति विश्वं चराचरम् । सुखामृतपयःपूरैः प्रीणयत्यखिलं जगत् ॥ ६ ॥ अर्थ–धर्म, कष्टके आनेपर समस्त जगतके त्रस स्थावर जीवोंकी रक्षा करता है और सुखरूपी अमृतके प्रवाहोंसे समस्त जगतको तृप्त करता है ॥ ६ ॥ पर्जन्यपवनार्केन्दुधराम्बुधिपुरन्दराः । अमी विश्वकारेषु वर्त्तन्ते धर्मरक्षिताः ॥ ७ ॥ अर्थ - मेघ, पवन, सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, समुद्र और इन्द्र ये सम्पूर्ण पदार्थ जगतके उपकाररूप प्रवर्त्तते हैं और वे सब ही धर्मद्वारा रक्षा किये हुए प्रवर्त्तते हैं । धर्मके बिना ये कोई भी उपकारी नहीं होते हैं ॥ ७ ॥ मन्येऽसौ लोकपालानां व्याजेनाव्याहतक्रमः । 'जीवलोकोपकारार्थ धर्म एव विजृम्भितः ॥ ८ ॥ अर्थ --- आचार्य महाराज ऐसा मानते हैं कि, इन्द्रादिक लोकपाल अथवा राजादिकों के व्याजसे (बहाने से ) लोकोंके उपकारार्थ यह धर्म ही अव्याहत फैल रहा है ॥ ८ ॥ न तत्रिजगतीमध्ये भुक्तिमुक्त्योर्निबन्धनम् । प्राप्यते धर्मसामर्थ्यान्न यद्यमितमानसैः ॥ ९ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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