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________________ ३६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अर्थ-यह मूढ प्राणी जिस समय मोहके उदयसे चेतन तथा अचेतन पदाअॅसे अपनी एकता मानता है, तब यह जीव आपको अपने ही भावोंसे बांधता है अर्थात् कर्मबन्ध करता है । और जब यह अन्यपदार्थोसे अपनी एकता नहिं मानता है तब कर्मवन्ध नहिं करता है और कर्मोकी निर्जरापूर्वक परंपरा मोक्षगामी होता है । एकत्वभावनाका यही फल है ॥९॥ एकाकित्वं प्रपन्नोऽसि यदाहं वीतविभ्रमः ।। तदैव जन्मसम्बन्धः स्वयमेव विशीयते ॥१०॥ अर्थ-जिस समय यह जीव भ्रमरहित हो ऐसा चिंतवन करे कि, मैं एकताको प्राप्त होगया हूं, उसी समय इस जीवका संसारका सम्बन्ध स्वयं ही नष्ट हो जाता है। क्योंकि संसारका संवन्ध तो मोहसे है और यदि मोह जाता रहै, तो आप एक है फिर मोक्ष क्यों न पावे? ॥ १० ॥ अब एकत्वभावनाका व्याख्यान पूरा करते हैं सो सामान्यतासे कहते हैं, मन्दाक्रान्ता। एकः खर्गा भवति विवुधः स्त्रीमुखाम्भोजभृङ्गः एकश्वानं पिबति कलिलं छिद्यमानः कृपाणैः । एक: क्रोधाधनलकलितः कर्म वनाति विद्वान् __ एकः सर्वावरणविगमे ज्ञानराज्यं सुनक्ति ॥११॥ अर्थ-यह आत्मा आप एक ही देवांगनाके मुखरूपी कमलकी सुगन्धि लेनेवाले भ्रमरके समान वर्गका देव होता है और अकेला आप ही कृपाण छुरी तलवारोंसे छिन्न भिन्न किया हुआ नरक सम्बन्धी रुधिरको पीता है तथा अकेला आप क्रोधादि कपायरूपी अग्निसहित होकर कर्मोको बांधता है और अकेलाही आप विद्वान् ज्ञानी पंडित होकर समस्त कर्मरूप आवरणके अभाव होनेपर ज्ञानरूप राज्यको भोगता है । भावार्थआत्मा आप अकेला ही खर्गमें जाता है, आप ही अकेला नरकमें जाता है, आप ही कर्म बांधता है और आप ही केवलज्ञानपाकर मोक्षको जाता है ॥ ११ ॥ इस भावनाका संक्षेप आशय इतना ही है कि, परमार्थसे (निश्चयसे ) तो आत्मा अनन्तज्ञानादि स्वरूप आप एक ही है, परन्तु संसारमें जो अनेक अवस्थायें होती हैं वे कर्मके निमित्तसे होती हैं। उनमें भी आप अकेला ही है । इसका दूसरा कोई भी साथी नहीं है । इस प्रकार एकत्वभावनाका व्याख्यान किया है ॥ दोहा। परमारथतें आतमा, एक रूप ही जोय । कर्मनिमित विकलप घनें, तिनि नाशे शिव होय ॥४॥ इति एकत्वभावना ॥४॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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