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________________ ३४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अर्थात् चारों ही गतिमें दुःख पाते हैं, इन्हें सुख कहीं भी नहीं है। इस प्रकार संसारभावनाका वर्णन किया ॥ १७ ॥ ___ इसका संक्षेप यह है कि, संसारका कारण अज्ञानभाव है । अज्ञानभावसे परद्रव्योंमें मोह तथा रागद्वेषकी प्रवृत्ति होती है। रागद्वेपकी प्रवृत्तिसे कर्मवन्ध होता है और कर्मबन्धका फल चारों गतिमें भ्रमण करना है, सो कार्य है । यहां कार्य और कारण दोनोंहीको संसार कहते हैं। यहां कार्यका वर्णन विशेपतासे किया गया है, क्योंकि व्यवहारी जीवको कार्यरूप संसारका अनुभव विशेषतासे है । परमार्थसे अज्ञानभाव ही संसार है। दोहा। परद्रव्यनते प्रीति जो, है संसार अवोध । ताको फल गति चारमें, भ्रमण कह्यो श्रुतशोध ॥३॥ इति संसारभावना ॥३॥ अथ एकत्वभावना लिख्यते। अब एकत्वभावनाका व्याख्यान करते हैं, सो प्रथम ही यह करते हैं, कि यह आत्मा समस्त अवस्थाओंमें एक ही होता है, महाव्यसनसंकीर्णे दुःखज्वलनदीपिते । एकाक्येव भ्रमत्यात्मा दुगै भवमरुस्थले ॥१॥ अर्थ-महा आपदाओंसे भरे हुए दुःखरूपी-अग्निसे प्रज्वलित और गहन ऐसे संसाररूपी मरुस्थलमें (जल-वृक्षादि-हीन रेतीली भूमिमें ) यह जीव अकेला ही भ्रमण करता है । कोई भी इसका साथी नहीं है ॥ १ ॥ स्वयं खकर्मनिवृत्तं फलं भोक्तुं शुभाशुभम् । शरीरान्तरमादत्ते एकः सर्वत्र सर्वथा ॥२॥ अर्थ- इस संसारमें यह आत्मा अकेला ही तो अपने पूर्वकर्मोके सुखदुःखरूप फलको भोगता है और अकेला ही समस्त गतियोंमें एक शरीरसे दूसरे शरीरको धारण करता है ॥ २ ॥ ___ संकल्पानन्तरोत्पन्नं दिव्यं वर्गसुखामृतम् । . निर्विशत्ययमेकाकी खर्गश्रीरञ्जिताशयः ॥३॥ अर्थ-तथा यह आत्मा अकेला ही खर्गकी शोभासे रंजायमान होकर देवोपनीत संकल्प मात्र करते ही उत्पन्न होनेवाले खर्गसुखरूपी अमृतका पान करता है अर्थात् खर्गके सुख भी अकेला ही भोगता है। कोई भी इसका साथी नहीं है ॥ ३ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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