SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ । रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अर्थ-अहो ! देखो ? खर्गका देव तो रोता पुकारता तथा खर्गसे नीचे गिरता है और कुत्ता वर्गमें जाकर देव होता है! एवम् श्रोत्रिय अर्थात् क्रियाकांडका अधिकारी अस्पर्श रहनेवाला ब्राह्मण मरकर कृमि अथवा चंडालादि हो जाता है । इसप्रकार इस संसारकी विडंबना है ॥ ७ ॥ रूपाण्येकानि गृह्णाति त्यजत्यन्यानि सन्ततम् । यथा रङ्गेऽन्न शैलूषस्तथायं यन्त्रवाहकः ॥८॥ अर्थ-यह यंत्रवाहक (प्राणी) संसारमें अनेक रूपोंको ग्रहण करता है और अनेक रूपोंको छोडता है । जिस प्रकार नृत्यके रंगमञ्चपर नृत्य करनेवाला भिन्न २ खाँगोंको धरता है, उसी प्रकार यह जीव निरन्तर भिन्न २ खांग (शरीर) धारण करता रहता है ।॥ ८॥ सुतीव्रासातासंतप्ताः मिथ्यात्वातङ्कतर्किताः। पञ्चधा परिवर्तन्ते प्राणिनो जन्मदुर्गमे ॥९॥ अर्थ-इस संसाररूपी दुर्गम वनमें संसारीजीव मिथ्यात्वरूपी रोगसे शंकित अतिशयतीव्र असातावेदनीसे दुःखित होते हुए पांच प्रकारके परिवर्तनोंमें भ्रमण करते रहते हैं ॥९॥ उन पांच प्रकारके परिवर्तनोंका नाम कहते हैं, द्रव्यक्षेत्रे तथा कालभवभावविकल्पतः। संसारो दुःखसंकीर्णः पञ्चधेति प्रपञ्चित्तः ॥१०॥ अर्थ-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, तथा भावके भेदसे संसार पांच प्रकारके विस्ताररूप दुःखोंसे व्याप्त कहा गया है । इन पांच प्रकारके परिवर्तनोंका स्वरूप विस्तारपूर्वक अन्यग्रन्थोंसे जानना ॥१०॥ सर्वैः सर्वेऽपि सम्बन्धाः संप्राप्ता देहधारिभिः । अनादिकालसंभ्रान्तैस्त्रसस्थावरयोनिपु ॥ ११॥ अर्थ-इस संसारमें अनादिकालसे फिरते हुए जीवोंने समस्तजीवोंके साथ पिता पुत्र प्राता माता पुत्री स्त्री आदिक सम्बन्ध अनेकवार पाये हैं । ऐसा कोई भी जीव वा सम्बन्ध वाकी नहिं रहा, जो इस जीवने न पाया हो ॥ ११ ॥ देवलोके नृलोके च तिरश्चि नरकेऽपि च ॥ न सा योनिन तद्पं न स देशो न तत्कुलम् ॥१२॥ न तदुःखं सुखं किञ्चिन्न पर्यायः स विद्यते । यत्रैते प्राणिनः शश्वद्यातायातैनं खण्डिताः ॥ १३॥ अर्थ-इस संसारमें चतुर्गतिमें फिरते हुए जीवके वह योनि वा रूप, देश, कुल,
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy