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________________ २८ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् बसे ग्रसता है । किसीमें भी इसका हीनाधिक विचार नहीं हैं, इसी कारणसे इसका एक नाम समवर्त्ती भी है ॥ ११ ॥ अब कहते हैं कि, इस कालको कोई भी नहिं निवार सकता, - गजाश्वरथसैन्यानि मन्त्रौषधवलानि च । व्यर्थी भवन्ति सर्वाणि विपक्षे देहिनां यमे ॥ १२ ॥ अर्थ- - जब यह काल जीवोंके विरुद्ध होता है अर्थात् जगतके जीवोंको ग्रसता है तथा नष्ट करता है, तब हाथी घोड़ा रथ सेना मन्त्र तन्त्र औपधादि सब ही व्यर्थ हो जाते हैं । भावार्थ - जब मृत्यु ( काल ) आती है, तब इस जीवको कोई भी नहिं बचा सकता है ॥ १२ ॥ विक्रमैकरसस्तावज्जनः सर्वोऽपि वल्गति । न शृणोत्यदर्यं यावत्कृतान्तहरिगर्जितम् ॥ १३ ॥ अर्थ - पराक्रम ही है अद्वितीय रस जिसके, ऐसा यह मनुष्य तबतक ही उद्धत होकर दौड़ता कूदता है, जबतक कि कालरूपी सिंहकी गर्जनाका शब्द नहिं सुनता अर्थात् — तेरी मौत आ गई ऐसा शब्द सुनते ही सब खेल कूद भूल जाता है ॥ १३ ॥ अकृताभीष्ट कल्याणमसिद्धारब्धवान्छितम् । प्रागेवागत्य निस्रंसी हन्ति लोकं यमः क्षणे ॥ १४ ॥ अर्थ - यह काल ऐसा निर्दयी है कि, जिन्होंने अपना मनोवांछित कल्याणरूप कार्य नहिं किये और न अपने प्रारंभ किये हुए कार्यों को पूर्ण कर पाये, ऐसे लोगोंको यह सबसे पहिले आकर तत्काल मार डालता है । लोगोंके कार्य जैसेके तैसे अधूरे ही घरे रह जाते हैं ॥ १४ ॥ 1 फिर भी जीवोंके अज्ञानपनको दिखाते हैं. - स्रग्धरा । भ्रूभङ्गारम्भभीतं स्खलति जगदिदं ब्रह्मलोकावसानम् Resouन्ति शैलाचरणगुरुभराक्रान्तधात्री वशेन । येषां तेsपि प्रवीराः कतिपयदिवसैः कालराजेन सर्वे नीता वार्त्तावशेषं तदपि हतधियां जीवितेऽप्युद्धताशा ॥ १५ ॥ अर्थ - जिनकी भौंह कटाक्षोंके प्रारंभमात्रसे ब्रह्मलोक पर्यन्तका यह जगत् भयभीत हो जाता है, तथा जिनके चरणोंके गुरुभारके कारण पृथिवीके दबनेमात्र से पर्वत · तत्काल खंड २ हो जाते हैं, ऐसे २ सुभटोंको भी जिनकी अब कहानी मात्र ही सुनने में आती है, इस कालने खा लिया है । फिर यह हीनबुद्धि जीव अपने जीनेकी बडी भारी आशा रखता है, यह कैसी बडी भूल है ॥ १५ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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