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________________ ४४२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् तौ लोकगमनान्तस्थौ ततो लोके गतिस्थिती । अर्थानां न तु लोकान्तमतिक्रम्य प्रवर्तते ॥ ६२ ॥ अर्थ-वे धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय लोकके गमन पर्यन्त स्थित हैं, इसलिये पदार्थोंकी गति और स्थिति लोकमें ही होती है; लोकको उल्लंघन करके नहीं होती ॥६२॥ इसलिये भगवान् लोकाग्रभागतक ही गमन करते हैं । स्थितिमासाद्य सिद्धात्मा तत्र लोकाग्रमन्दिरे । आस्ते खभावजानन्तगुणैश्वर्योपलक्षितः ॥ ६३ ॥ अर्थ - सिद्धात्मा उस लोकाग्रमन्दिर में स्थिति पाकर, स्वभावसे उत्पन्न हुए अनन्तं गुण और ऐश्वर्यसहित विराजमान रहते हैं ॥ ६३ ॥ आत्यन्तिकं निराबाधमत्यक्षं खखभावजम् । यत्सुखं देवदेवस्य तद्वक्तुं केन पार्यते ॥ ६४ ॥ अर्थ - सिद्धात्मा देवाधिदेवका जो अत्यन्त, बाधारहित, अतीन्द्रिय और अपने खभावसे ही उत्पन्न सुख है उसका वर्णन कौन कर सकता है ? ॥ ६४ ॥ तथाप्युद्देशतः किञ्चिद् ब्रवीमि सुखलक्षणम् । निष्ठितार्थस्य सिद्धस्य सर्वद्वन्द्वातिवर्तिनः ॥ ६५ ॥ अर्थ- आचार्य कहते हैं कि जिनके समस्त प्रयोजन सम्पन्न हो चुके हैं और सुखके घातक ऐसे समस्त द्वन्द्वोंसे जो रहित है. ऐसे सिद्ध भगवानके सुख यद्यपि कोई नहीं कह संकता; तथापि मैं नाममात्रसे किञ्चित् कहता हूं ॥ ६५ ॥ यदेव मनुजाः सर्वे सौख्यमक्षार्थसम्भवम् । निर्विशन्ति निराबाधं सर्वाक्षप्रीणनक्षमम् ॥ ६६ ॥ सर्वेणातीतकाले तु यच्च भुक्तं महर्द्धिकम् । भाविनो यच भोक्ष्यन्ति स्वादिष्टं खान्तरञ्जकम् ॥ ६७ ॥ अनन्तगुणितं तस्मादत्यक्षं स्वस्वभावजम् । एकस्मिन् समये भुङ्क्ते तत्सुखं परमेश्वरः ॥ ६८ ॥ अर्थ- जो समस्त देव और मनुष्य इन्द्रियोंके विषयोंसे उत्पन्न और करनेमें समर्थ ऐसे निराबाध सुखको वर्तमान कालमें भोगते हैं । तथा कालमें जो सुख भोगे हैं और जो सुख महाऋद्धियोंसे उत्पन्न हुए हैं तथा मनको प्रसन्न करनेवाले जो सुख आगामी कालमें भोगे जायँगे उन समस्त नन्त गुणे अतीन्द्रिय और अपने सुखसे उत्पन्न होनेवाले सुखको श्रीसिद्ध मेश्वर एक ही समय में भोगते हैं ॥ ६६ ॥ ६७ ॥ ६८ ॥ + इन्द्रियोंके तृप्त सबने अतीत खादिष्ठ और सुखोंसे अभगवान् पर -
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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