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________________ ४२९ ज्ञानार्णवः । सर्वाभिमतभावोत्थं निर्विघ्नं खासुखामृतम् । सेव्यमाना न वुद्ध्यन्ते गतं जन्म दिवौकसः ॥ २४ ॥ अर्थ-वर्गनिवासी देव अपने समस्त मनोवांछित पदार्थोंसे उत्पन्न और निर्विन ऐसे खर्गके सुखरूप अमृतका सेवन करते हुए व्यतीत हुए जन्मको अर्थात् गये हुए देवपर्यायको नहीं जानते ॥ २४ ॥ तस्माच्युत्वा त्रिदिवपटलादिव्यभोगावसाने _कुर्वन्त्यस्यां भुवि नरनुते पुण्यवंशेऽवतारम् । तत्रैश्वर्य परमवपूषं प्राप्य देवोपनीतै. भॊगैनित्योत्सवपरिणतैाल्यमाना वसन्ति ॥ २५ ॥ ___ अर्थ-फिर वे स्वर्गके देव दिव्य भोगोंको भोगकर, उस स्वर्गपटलसे च्युत होते हैं और इस भूमंडलमें जिसको लोग नमस्कार करते हैं ऐसे उत्तम पुण्य वंशमें अवतार लेते ., हैं । और वहां भी परम (उत्कृष्ट) शरीर और ऐश्वर्यको पाकर, नित्य उत्सव रूप. परिवत ऐसे देवोपनीत अनेक भोगोंसे लालित और पुष्ट हुए निवास करते हैं । यह सब धर्म्यध्यानका फल है ॥ २५॥ ततो विवेकमालम्व्य विरज्य जननभ्रमात् । त्रिरत्नशुद्धिमासाद्य तपः कृत्वान्यदुष्करम् ॥ २६ ॥ धर्मध्यानं च शुक्लं च स्वीकृत्य निजवीर्यतः। कृत्लकर्मक्षयं कृत्वा ब्रजन्ति पद्मव्ययम् ॥ २७ ॥ अर्थ-उसके बाद अर्थात् उत्तम मनुष्यभवके सुख भोगकर, पुनः भेदज्ञानको. (शरीरादिकसे आत्माकी भिन्नताको ) अवलंबन कर, संसारके परिभ्रमणसे विरक्त हो, . रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्रकी शुद्धताको प्राप्त कर, दुर्धर तप कर तथा अपनी शक्तिके अनुसार धर्म्यध्यान और शुक्लध्यानको धारण कर और समस्त। कर्मीका नाश कर, अविनाशी मोक्ष पदको प्राप्त होते हैं । यह धर्म्यध्यानका परंपरारूप फल है । इस प्रकार धर्म्यध्यानका फल निरूपण किया ॥ २६॥२७॥ दोहा। धर्मध्यानको फल भलो, पद अहमिन्द्र सुरेन्द्र । परंपरा शिवपुर वसे, जे नर धेरै वितन्द्र ॥ १॥ इति श्रीशुभचन्द्राचार्यविरचिते योगप्रदीपाधिकारे ज्ञानार्णवे धHध्यानफल वर्णनं नामैकचत्वारिंशं प्रकरणम् ॥ ४१॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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