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________________ ज्ञानार्णवः। ४२३ तरह प्राप्त हो जाता है कि, जिससे पृथक् पनेका बिल्कुल भान नहीं होता । भावार्थउस समय ध्याता और ध्येयमें द्वैतभाव नहीं रहता ॥ ३० ॥ उकं च। निष्कलः परमात्माहं लोकालोकावभासकः। विश्वव्यापी स्वभावस्थो विकारपरिवर्जितः॥१॥ अर्थ-निष्कल अर्थात् देहरहित, लोक और अलोकको देखने और जाननेवाला, विश्व व्यापक, स्वभावमें स्थिर, समस्त विकारोंसे रहित ऐसा परमात्मा मैं हूं । ऐसा अन्य ग्रंथों में भी अभेद भाव दिखाया है ॥ १॥" मालिनी। इतिविगतविकल्पं क्षीणरागादिदोषं विदितसकलवेद्यं वक्तविश्वप्रपञ्चम् । शिवमजमनवद्यं विश्वलोकैकनाथं परमपुरुषमुच्चैर्भावशुद्ध्या भजस्व ॥ ३१ ॥ अर्थ-यहां आचार्य विशेष उपदेशरूप प्रेरणा करते हैं कि हे मुनि, इस प्रकार जिसके समस्त विकल्प दूर होगये हैं, जिसके रागादिक सब दोष क्षीण हो चुके हैं, जो जानने योग्य समस्त पदार्थोंका जाननेवाला है, जिसने संसारके समस्त प्रपञ्च छोड़ दिये हैं, जो शिव अर्थात् कल्याणस्वरूप अथवा मोक्षस्वरूप है, जो अन अर्थात् जिसको आगे जन्म मरण नहीं करना है, जो अनवद्य अर्थात् पापोंसे रहित है, तथा जो समस्त लोकका एक अद्वितीय नाथ है ऐसे परम पुरुष परमात्माको भावोंकी शुद्धतापूर्वक अतिशय करके मज । भावार्थ-शुद्ध भावोंसे ऐसे परम पुरुष परमात्माका ध्यान कर ॥ ३१ ॥ इस प्रकार इस अध्यायमें रूपातीत ध्यानका निरूपण किया है। इसका संक्षेप भावार्थ यह है कि जब ध्यानी सिद्ध परमेष्ठीके ध्यानका अभ्यास करके शक्तिकी अपेक्षासे आपको भी उनके समान जानकर और आपको उनके समान व्यक्तरूप करनेके लिये उसमें (आपमें ) लीन होता है, तब आप कर्मका नाश कर, व्यक्तरूप सिद्ध परमेष्ठी होता है। दोहा। सिद्ध निरञ्जन कर्मविन, सूरतिरहित अनन्त । जो ध्याचे परमातमा, सो पावे शिव संत ॥१॥ इति श्रीशुभचन्द्राचार्यविरचिते योगप्रदीपाधिकारे ज्ञानार्णवे रूपातीत ध्यानवर्णनं नाम चत्वारिंशं प्रकरणम् ॥ ४०॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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