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________________ ज्ञानार्णवः। सम्यक् चारित्ररूप अमृतके झरनोंसे संसारके खेदको दूर करनेवाला है, परिग्रहरहित है, जीत लिया है द्वैतभाव जिसने ऐसा है, कल्याणखंरूप, शान्तरूप तथा सनातन अर्थात् नित्यरूप है ।। २५ ।। तथा अरहन्त है, अजन्मा है, अव्यक्त है, अर्थात् इन्द्रियगोचर नहीं है तथा कामद (मनोवांछित दाता) है, कामका नाशक है, पुराण पुरुष है, देव है, देवोंका देव है, जिनेश्वर है ॥ २६ ॥ तथा समस्त लोकको देखने वा दिखानेको नेत्र समान है, जगतके वंदने योग्य है, योगियोंका नाथ है, महेश्वर है, ज्योतिर्मय (ज्ञान प्रकाशमय ) है, आदि अंतरहित है, सवका रक्षक है, तीन भुवनका ईश्वर है ॥ २७ ॥ योगीश्वर है, ईशान है, आदिदेव है, जगद्गुरु है, अनन्त है, अच्युत है, शान्त है, तेजखी है, भूतनायक है, ॥ २८ ॥ सन्मति है, सुगत है, सिद्ध है, जगत्में ज्येष्ठ है, पितामह है, महावीर है, मुनिश्रेष्ठ है, पवित्र है, परमाक्षर है ॥ २९ ॥ सर्वज्ञ है, सवका दाता है, सर्वहितैपी है, वर्द्धमान है, निरामय (रोगरहित) है, नित्य है, अव्यय (नाशरहित) है, अव्यक्त है, परिपूर्ण है, पुरातन है ॥ ३० ॥ इत्यादिक अनेक सार्थ पवित्र नाम सहित, सर्वगत, देवोंका नायक, सर्वज्ञ जो श्रीवीरतीर्थकर है उसको हे मुने, तू स्मरण कर ॥३१॥ इस प्रकार दोपरहित, सर्वज्ञ देव, अरहंत जिनदेवका ही ध्यान करना चाहिये । अन्यमती गुणरहित दोपसहितको सर्वज्ञ कहते हैं सो नाममात्र है, कल्पित है, वह सर्वज्ञ ध्यान करने योग्य नहीं है. अनन्यशरणं साक्षात्तत्संलीनैकमानसः। तत्स्वरूपमवामोति ध्यानी तन्मयतां गतः ॥ ३२॥ अर्थ-उपर्युक्त सर्वज्ञ देवका ध्यान करनेवाला ध्यानी अन्य शरणसे रहित हो, साक्षात् उसमें ही संलीन है मन जिसका ऐसा हो, तन्मयताको पाकर, उसी खरूपको प्राप्त होता है ।। ३२॥ यमाराध्य शिवं प्राप्ता योगिनो जन्मनिस्पृहाः। यं स्मरन्त्यनिशं भव्याः शिवश्रीसंगमोत्सुकाः ॥ ३३॥ यस्य वागमृतस्यैकामासाद्य कणिकामपि । शाश्वते पथि तिष्ठन्ति प्राणिनः प्रास्तकल्मषाः ॥ ३४ ॥ देवदेवः स ईशानो भव्या भोकभास्करः। ध्येयः सर्वात्मना वीरः निश्चलीकृत्य मानसम् ॥ ३५ ॥ अर्थ-जिस सर्वज्ञ देवको आराधन करके संसारसे निस्पृह मुनिगण मोक्षको प्राप्त हुए हैं तथा मोक्षलक्ष्मीके संगममें उत्सुक भव्यजीव जिसका निरन्तर ध्यान करते हैं ॥ ३३ ॥ तथा जिनके वचनरूपी एक कणिका मात्रको पाकर, संसारी जीव कल्मप ( मिथ्यात्व
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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