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________________ ज्ञानार्णवः। ४०१ अर्थ-तत्पश्चात् यदि एक वर्षपर्यन्त उसी प्रकार अभ्यास करै तो मुखमेंसे निकलती हुई महा अग्निकी ज्वालाको देखता है ॥ ७५ ॥ ततोऽतिजातसंवेगो निर्वेदालम्बितो वशी। ध्यायन्पश्यत्यविश्रान्तं सर्वज्ञमुखपङ्कजम् ॥ ७६ ।। अर्थ-तत्पश्चात् अतिशय उत्पन्न हुआ है धर्मानुराग जिसके ऐसा वैराग्यावलंबित जितेन्द्रिय मुनि निरन्तर ध्यान करता २ सर्वज्ञके मुखकमलको देखता है ॥ ७६ ।। अथाप्रतिहतानन्दप्रीणितात्मा जितश्रमः । श्रीमत्सर्वज्ञदेवेशं प्रत्यक्षमिव वीक्षते ॥ ७७ ॥ अर्थ-यहांसे आगे वही ध्यानी अनिवारित आनंदसे तृप्त है आत्मा जिसका और जीता है दुःख जिसने ऐसा होकर, श्रीमत्सर्वज्ञदेवको प्रत्यक्ष अवलोकन करता है ।। ७७॥ सर्वातिशयसंपूर्ण दिव्यरूपोपलक्षितम् । , कल्याणमहिमोपेतं सर्वसत्त्वाभयप्रदम् ॥ ७८ ॥ अर्थ सर्वज्ञको ध्यानी कैसे प्रत्यक्ष देखता है कि-सर्व अतिशयोंसे परिपूर्ण दिव्य रूपसे उपलक्षित पंचकल्याणकी महिमासहित समस्त जीवोंको अभयदान देनेवाले तथा ॥ ७८ ।। प्रभावलयमध्यस्थं भव्यराजीवरक्षकम् । ज्ञानलीलाधरं वीरं देवदेवं स्वयंभुवम् ॥ ७९ ॥ अर्थ-प्रभावलयके बीचमें स्थित हुए भव्यरूप कमलोंको रंजायमान करनेवाले, ज्ञानकी लीलाके धरनेवाले, विशिष्ट लक्ष्मीवाले, देवोंके देव खयंभू ऐसे सर्वज्ञको साक्षात् देखता है ॥ ७९ ॥ ततो विधूततन्द्रोऽसौ तस्मिन्संजातनिश्चयः। भवभ्रममपाकृत्य लोकाग्रमधिरोहति ॥ ८॥ अर्थ-तत्पश्चात् इस मन्त्रका ध्यान करनेवाला मुनि प्रमादको नष्ट करके तथा इस मंत्रमें सर्वज्ञके खरूपका निश्चय हो जानेपर संसारभ्रमको दूर करके लोकके अग्रभाग मोक्षस्थानको आश्रय करता है ।। ८० ।। इसप्रकार मुखकमलमें अष्टदलकमलमै आठ अक्षरोंको स्थापन करके, कर्णिकाके केशरोंमें सोलह खर स्थानपूर्वक ही वर्णका जो पूर्वोक्त प्रकारसे ध्यान करें, उसका फल (महिमा) वर्णन किया। अब अन्य विद्याका वर्णन करते हैं, आर्या । स्मर सकलसिद्धविद्यां प्रधानभूतां प्रसन्नगम्भीराम् । विधुबिम्बनिर्गतासिव क्षरत्सुधाद्री महाविद्याम् ।। ८१ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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