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________________ ज्ञानार्णवः । सर्वसत्त्वाभयस्थानं वर्णमालाविराजितम् । स्सर मन्त्रं जगजन्तुक्लेशसंततिघातकम् ।। ६३ ॥ अर्थ-हे मुने! तु समस्त जीवोंका अभयस्थान-तथा जगतके जीवोंके क्लेशकी सन्ततिको काटनेवाला और अक्षरोंकी पंक्तिसे विराजमान ऐसे मन्त्रका चिन्तवन कर. वह मंत्र यह है-ॐ नमोऽहते केवलिने परमयोगिनेऽनन्तशुद्धिपरिणामविस्फुरदुरुशुक्लध्यानामिनिर्दग्धकर्मवीजाय प्राप्तानन्तचतुष्टयाय सौम्याय शान्ताय मङ्गलाय वरदाय अष्टादशदोपरहिताय स्वाहा ॥ ६३ ॥ स्मरेन्दुमण्डलाकारं पुण्डरीकं मुखोद्रे । दलाष्टकसमासीनं वर्णाष्टकविराजितम् ॥ ६४॥ अर्थ-हे मुने! तू मुखमें चन्द्रमंडलके आकारका, आठ अक्षरोंसे शोभायमान, आठ पत्रोंका एक कमल चिन्तवन कर ॥ ६४ ॥ वे आठ अक्षर कौन २ से हैं, सो कहते हैं. ॐ नमो अरहताणमिति वर्णानपि क्रमात् । ____ एकशः प्रतिपत्रं तु तस्मिन्नेव निवेशयेत् ॥ ६५ ।। अर्थ-ॐ नमो अरहंताण' ये आठ अक्षर मुखपर स्मरण किए हुये उस कमलके आठों पत्रोंपर स्थापनकर, क्रमसे एक एक अक्षरका ध्यान करना चाहिये ॥ ६५ ॥ स्वर्णगौरी खरोद्भूतां केशराली ततः स्मरेत् । . कर्णिकां च सुधास्यन्दविन्दुब्रजविभूषिताम् ॥ ६६॥ . अर्थ-तत्पश्चात् अमृतके झरनोंके विन्दुओंसे सुशोभित कर्णिकाका चिन्तवन करै और उसमें खरोंसे उत्पन्न हुई तथा सुवर्णके समान गौरवर्णवाली केशरोंकी पंक्तिका ध्यान करै ।। ६६ ॥ प्रोद्यत्संपूर्णचन्द्राभं चन्द्रबिम्बाच्छनैः शनैः। समागच्छत्सुधावीजं मायावणं तु चिन्तयेत् ।। ६७ ॥ अर्थ–पश्चात् उदयको प्राप्त होते हुए, पूर्णचन्द्रमाकी कान्तिसमान, चन्द्रविसे . मंद मंद अमृतवीजको प्राप्त होते हुए मायावर्ण ही का चिंतवन करै ॥ ६ ॥ इस मायावर्णका किस प्रकार चिन्तवन करै, सो कहते हैं, विस्फुरन्तमतिस्फीतं प्रभामण्डलमध्यगम् । संचरन्तं मुखाम्भोजे तिष्ठन्तं कर्णिकोपरि ॥ ६८॥ भ्रमन्तं प्रतिपत्रेषु चरन्तं वियति क्षणे । छेद्यन्तं मनोध्वान्तं स्रवन्तममृताम्बुभिः ।। ६९ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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