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________________ ज्ञानार्णवः । नयन्तं परमस्थानं योजयन्तं शिवश्रियम् । इति मन्त्राधिपं धीर कुम्भकेन विचिन्तयेत् ॥ १९ ॥ अर्थ - धैर्य का धारक योगी कुंभक प्राणायामसे इस मन्त्रराजको भौंहकी लताओं में स्फुरायमान होता हुआ, मुखकमलमें प्रवेश झरता हुआ, तालुआके छिद्रसे गमन करता हुआ तथा अमृतमय जलसे करता हुआ ॥ १६ ॥ नेत्रकी पलकोंपर स्फुरायमान होता हुआ, केशोंमें स्थिति करता तथा ज्योतिषियोंके समूहमें भ्रमता हुआ, चन्द्रमा के साथ स्पर्द्धा करता हुआ ॥ १७ ॥ दिशाओं में संचरता हुआ, आकाशमें उछलता हुआ, कलंकके समूहको छेदता हुआ, संसारके भ्रमको दूर करता हुआ ||१८|| तथा परम स्थानको ( मोक्षस्थानको ) प्राप्त करता हुआ, मोक्षलक्ष्मीसे मिलाप कराता हुआ ध्यावै ॥ १९ ॥ अनन्यशरणः साक्षात्तत्संलीनैकमानसः । तथा स्मरत्यसौ ध्यानी यथा स्वप्नेऽपि न स्खलेत् ॥ २० ॥ अर्थ - ध्यान करनेवाला इस मन्त्राधिपको अन्य किसीका शरण न लेकर, इसही में साक्षात् तल्लीन मन करके, स्वप्नमें भी इस मंत्रसे च्युत न हो ऐसा दृढ होकर, ध्यावै ॥२०॥ इति मत्वा स्थिरीभूतं सर्वावस्थासु सर्वथा । नासाग्रे निश्चलं धत्ते यदि वा भ्रूलतान्तरे ॥ २१ ॥ ३९१ अर्थ - ऐसे पूर्वोक्त प्रकार महामन्त्र के ध्यानके विधानको जानकर, मुनि समस्त अवस्थाओं में स्थिर स्वरूप सर्वथा नासिकाके अग्रभागमें अथवा भौहलताके मध्य में इसको निश्चल धारण करै ॥ २१ ॥ 4 तत्र कैश्चिच्च वर्णादिभेदैस्तत्कल्पितं पुनः । मन्त्रमण्डलमुद्रादिसाधनैरिष्टसिद्धिदम् ॥ २२ ॥ 2 अर्थ - इस नासिकाके अग्रभाग अथवा भौंहलताके मध्य में निश्चल धारण करनेके अवसरमें कई आचार्योंने उस मंत्राधिपको ध्यान करनेमें अक्षरादिकके भेद करके कल्पना किया है और मंत्र मंडल मुद्रा इत्यादिक साधनोंसे इष्टकी सिद्धिका देनेवाला कहा है ॥ २२ ॥ - अकारादि हकारान्तं रेफमध्यं सबिन्दुकम् । तदेव परमं तत्त्वं यो जानाति स तत्त्ववित् ॥ १ ॥ अर्थ - अकार है आदिमें जिसके, हकार है अन्तमें जिसके और रेफ है मध्यमें जिसके और बिन्दुसहित ऐसा जो अर्ह पद है वही परम तत्त्व है । जो कोई इसको जानता है वह तत्त्वका जाननेवाला है ॥ १ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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