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________________ ३७८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अर्थ-इस प्रकार महाप्रभावसहित महाविभूतियुक्त स्वर्गाके सुखरूपी समुद्रमें निमम रहते हुए समयको नहीं जानते कि कितना बीत गया ॥ १७२ ॥ कचिगीतैः कचिन्नृत्यैः कचिद्वाचैमनोरमैः। क्वचिद्विलासिनीवातक्रीडाशृङ्गारदर्शनैः ॥ १७३ ।। दशाङ्गभोगजैः सौख्यैर्लभ्यमानाः कचित् कचित् । वसन्ति वागणः खगै कल्पनातीतवैभवे ।। १७४ ।। अर्थ-इस प्रकार कहीं तौ मनके लुभानेवाले गीत तथा नृत्य वादित्रों सहित तथा कहीं विलासिनी अप्सराओंके समूह किये हुए क्रीडा शृंगार सहित ॥ १७३ ॥ तथा कहींपर दश प्रकारके भोगों (कल्प वृक्षों )से उत्पन्न हुए सुखों सहित कल्पनातीत विभववाले स्वर्गों में वे देव रहते हैं ।। १७४ ॥ अब दशांग भोगोंके नाम गिनाते हैं, मद्यतूर्यगृहज्योतिर्भूषाभाजनविग्रहाः। सग्दीपवस्त्रपात्राङ्गा दशधा कल्पपादपाः ॥ १७ ॥ अर्थ-मद्य, वादिन, गृह, ज्योति, भूषण, भोजन, माला, दीपक, वस्त्र, पात्र, इन दश प्रकारके भोगोंके देनेवाले दश प्रकारके कल्पवृक्ष वर्गों में होते हैं. इस कारण स्वर्गके देव दशांग भोग भोगते हैं ।। १७५॥ यत्सुखं नाकिनां खगै तदक्तुं केन पार्यते। खभावजमनातकं सर्वाक्षमीणनक्षमम् ॥ १७६ ।। अर्थ-खोंमें खर्गवासियोंको जो सुख है उसको वर्णन करनेमें कोई समर्थ नहीं हैं. क्योंकि वह सुख विना प्रयासके खयमेव उत्पन्न होता है. उस सुखमें आतंक (रोगादिक) नहीं हैं और समस्त इन्द्रियोंको तृप्त करनेमें समर्थ है ॥ १७६ ॥ __अशेषविषयोद्भूतं दिव्यस्त्रीसंगसंभवम् । विनीतजनविज्ञानज्ञानाद्यैश्वर्यलान्छितम् ॥ १७७॥ अर्थ-वर्गोंका सुख समस्त प्रकारके विषयोंसे उत्पन्न हुआ है तथा दिव्य स्त्रियोंके संगमसे उत्पन्न हुआ हैं तथा विज्ञान चतुराई ज्ञानादिक ऐश्वर्य सहित उत्पन्न हुआ है. उसका वर्णन कौन कर सकता है ॥ १७७ ॥ सौधर्माद्यच्युतान्ता ये कल्पाः षोडश वर्णिताः। कल्पातीतास्ततो ज्ञेया देवा वैमानिकाः परे ॥ १७८ ॥ अहमिन्द्राभिधानास्ते प्रवीचारविवर्जिताः। विवर्द्धितशुभध्यानाः शुक्ललेश्यावलम्बिनः ॥ १७९ ॥ अर्थ-सौधर्म खर्गसे लगाकर अच्युत खर्ग पर्यन्त सोलह वर्ग कल्प कहे जाते.
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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