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________________ ज्ञानार्णवः। ३४५ अर्थ-यह पूर्वोक्त प्रकारका अपायविचयनामा ध्यान सैंकड़ों नयोंको अवलम्बन करनेवाला है तथा दूर किये हैं समस्त दोष जिसने ऐसे समस्त कलंकरहित सर्वज्ञदेवने कहा है. सो जो कोई पुरुष इसको अनुक्रमसे निरन्तर प्रमादरहित होकर ध्याता है। उसके हृदयमें निर्मल ज्ञानरूप सूर्यका प्रकाश स्फुरायमान होता है ॥ १७ ॥ इसप्रकार अपायविचय नामक धर्मध्यानके दूसरे भेदका वर्णन किया। दोहा।। मोक्षमार्गमें विघ्नको, मिटै कौन विधि सोय । इमि चिंतै ज्ञानी जवै, विचय अपाय सु होय ॥ ३४ ॥ इति श्रीशुभचन्द्राचार्यविरचिते योगप्रदीपाधिकारे ज्ञानार्णवे अपायविचयवर्णनं नाम चतुस्त्रिंशं प्रकरणं समाप्तम् ॥ ३४ ॥ अथ पञ्चत्रिंशं प्रकरणम् । आगे विपाकविचयनामा धर्म ध्यानके तीसरे भेदका वर्णन करते हैं स विपाक इति ज्ञेयो यः स्वकर्मफलोदयः।। प्रतिक्षणसमुद्भतश्चित्ररूपः शरीरिणाम् ॥१॥ अर्थ-प्राणियोंके अपने उपार्जन किये हुए कर्मके फलका जो उदय होता है वह विपाक नामसे कहा है. सो वह कर्मोदय क्षण क्षणप्रति उदय होता है और ज्ञानावरणादि अनेक रूप है ॥ १॥ कर्मजातं फलं दत्ते विचित्रमिह देहिनाम् ।। आसाद्य नियतं नाम द्रव्यादिकचतुष्टयम् ॥ २॥ अर्थ-जीवोंके कर्मोंका समूह निश्चित द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप चतुष्टयको पाकर; इस लोकमें अनेक प्रकारसे अपने नामानुसार फलको (आगे कहते हैं उसप्रकार) देता है ॥२॥ शार्दूलविक्रीवितम्। स्रक्शय्यासनयानवस्त्रवनितावादित्रमित्राङ्गजान् कर्पूरागुरुचन्द्रचन्दनवनक्रीडाद्रिसौषध्वजान् । मातङ्गांश्च विहङ्गाचामरपुरीभक्षान्नपानानि वा . छत्रादीनुपलभ्य वस्तुनिचयान्सौख्यं श्रयन्तेऽङ्गिनः ॥३॥ अर्थ-ये प्राणी पुष्पमाला, सुंदर शय्या, आसन, यान, वस्त्र, स्त्री, वाजे, मित्र, पुत्रादिको तथा कर्पूर अगुरु, चन्द्रमा, चंदन, वनक्रीड़ा, पर्वत, महल,. ध्वजादिकको तथा
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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