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________________ ज्ञानार्णवः। एकतः कर्मणां सैन्यमहमेकस्ततोऽन्यतः । स्थातव्यमप्रमत्तेन मयास्सिन्नरिसंकटे ॥८॥ अर्थ-इस संसारमें एक ओर तो कर्मोंकी सेना है और एक तरफ मैं अकेला हूं; इसकारण इस शत्रुसमूहमें मुझको अप्रमत्त (सावधान) होकर रहना चाहिये. असावधान रहूंगा तो कर्मरूप वैरी बहुत हैं इससे वे मुझे बिगाड़ देंगे ॥ ८॥ निर्दृय कर्मसंघातं प्रवलध्यानवह्निना । कदा खं शोधयिष्यामि धातुस्थमिव काञ्चनम् ॥९॥ अर्थ-फिर ऐसा विचारै कि जिसप्रकार अन्य धातु (पापाण )में मिला हुआ कंचन अग्निसे शोधकर, शुद्ध किया जाता है उसी प्रकार मैं प्रबल ध्यानरूप अग्निके द्वारा कर्मोंके समूहको नष्ट करके, आत्माको कब शुद्ध करूंगा? इसप्रकार विचार करै ।। ९ ॥ किमुपेयो ममात्मायं किंवा विज्ञानदर्शने । चरणं वापवर्गाय त्रिभिः साई स एव वा ॥१०॥ अर्थ-फिर ऐसा विचार करै कि-मोक्षके लिये मेरे यह आत्मा उपादेय है, अथवा ज्ञानदर्शन उपादेय है, अथवा चारित्र उपादेय है, अथवा ज्ञानदर्शन 'चारित्र इन तीनों सहित आत्मा ही उपादेय है ॥ १० ॥ कोऽहं ममास्रवः कस्मात्कथं वन्धः क निर्जरा। का मुक्तिः किं विमुक्तस्य स्वरूपं च निगद्यते ॥ ११ ॥ अर्थ-फिर ऐसा विचारै कि मैं कौन हूं और मेरे कमौका आस्रव क्यों होता है? तथा कौका बंध क्यों होता है । और किस कारणसे निर्जरा होती है ? और मुक्ति क्या वस्तु है ? एवं मुक्त होनेपर आत्माका क्या खरूप कहा जाता है ? ॥ ११ ॥ जन्मनः प्रतिपक्षस्य मोक्षस्यात्यन्तिकं सुखम् । अव्यायाधं खभावोत्थं केनोपायेन लभ्यते ॥ १२ ॥ अर्थ-फिर ऐसा विचारै कि-संसारका प्रतिपक्षी जो मोक्ष है उसका अविनाशी, अनन्त, अव्यावाध (बाधारहित), स्वभावसे ही उत्पन्न हुआ (खाधीन) सुख किस उपायसे प्राप्त हो ॥ १२ ॥ मय्येव विदिते साक्षाद्विज्ञातं भुवनत्रयम् । यतोऽहमेव सर्वज्ञः सर्वदर्शी निरञ्जनः ॥ १३ ॥ अर्थ-फिर ऐसा ध्यान करै कि मेरे खरूपको जाननेसे मैने तीनों भुवन जान लियेक्योंकि, मैं ही सर्वज्ञ, सबका देखनेवाला, निरंजन और समस्त कर्मकालिमासे रहित हूं।॥ १३ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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