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________________ ३२० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् . वपुष्यात्ममतिः सूते बन्धुवित्तादिकल्पनम् । स्वस्य संपबेतेन मन्वानं मुषितं जगत् ॥ २१ ॥ अर्थ-शरीरमें जो आत्मबुद्धि है सो बन्धु धन इत्यादिककी कल्पना उत्पन्न कराती है तथा इस कल्पनासे ही जगत् अपने सम्पदा मानता हुआ ठगा गया है ॥ २१ ॥ तनावात्मेति यो भावः स स्याद्वीजं भवस्थितेः।। बहिर्वीताक्षविक्षेपस्तत्त्यक्त्वान्तर्विशेत्ततः ॥ २२ ॥ अर्थ-शरीरमें ऐसे भाव हैं कि-'यह मैं आत्माही हूं' ऐसा भाव संसारकी स्थितिका बीज है. इसकारण, वाह्यमें नष्ट हो गया है इन्द्रियोंका विक्षेप निसके ऐसा पुरुष उस भावरूप संसारके बीजको छोड़कर अन्तरंगमें प्रवेश करो, ऐसा उपदेश है ।। २२ ॥ अक्षदारैस्ततश्युत्वा निमग्नो गोचरेष्वहम् । तानासाद्याहमित्येतन्न हि सम्यगवेदिषम् ॥ २३ ॥ अर्थ-ज्ञानी इसप्रकार विचार करता है कि इन्द्रियोंके द्वारोंसे मैं आत्मखरूपसे छूटकर विषयोंमें मम होगया तथा उन विषयोंको प्राप्त होकर यह अहंपदसे जाना जाय ऐसे आत्मखरूपको भलेप्रकार नहीं जाना ॥ २३ ॥ बाह्यात्मानमपास्यैवमन्तरात्मा ततस्त्यजेत् । . प्रकाशयत्ययं योगः खरूपं परमेष्ठिनः ॥ २४ ॥ . अर्थ-इस पूर्वोक्तप्रकारसे बाह्यशरीरादिकमें आत्मवुद्धिको छोड़कर अन्तरात्मा होता हुआ इन्द्रियोंके विषयादिकमें भी आत्मबुद्धिको छोड़े इसप्रकार यह योग परमेष्ठीके खरूपको प्रकाश करता है ॥ २४ ॥ अब इन्द्रियोंके विषयोंमें आत्मबुद्धि किसप्रकार छोड़े सो कहते हैं, यद्यदृश्यमिदं रूपं तत्तदन्यन्न चान्यथा। 1 ज्ञानवच व्यतीताक्षमतः केनाऽत्र वच्म्यहम् ॥ २५ ॥ . अर्थ- जो जो देखनेयोग्य यह रूप है सो सो अन्य है और ज्ञानवान् जो मेरा रूप है सो अन्यप्रकार नहीं है (अन्यरूप सदृश नहीं है). यह व्यतीताक्ष है (इन्द्रियज्ञानसे अतीत है). इसकारण मैं किसके साथ वचनालाप करूं। भावार्थ-मूर्तीक पदार्थ इन्द्रियोंसे ग्रहण करनेयोग्य होता है सो वह तो जड़ है कुछ भी जानता नहीं है और मैं ज्ञानमूर्ती हूं. पुद्गलमूर्तीसे रहित हूं. इन्द्रियें मुझे ग्रहण नहीं करती अर्थात् इन्द्रियें मुझे नहीं जान सकती. इसकारण परस्पर वार्तालाप किससे करूं? इसप्रकार विचार कर विषयोंमें आत्मबुद्धि छोड़े ॥२५॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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