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________________ ज्ञानार्णवः। ३०९ अहं च परमात्मा च दावेतो ज्ञानलोचनौ । अतस्तं ज्ञातुमिच्छामि तत्स्वरूपोपलब्धये ॥९॥ · , अर्थ-मैं और परमात्मा दोनों ही ज्ञाननेत्रवाले हैं इसकारण अपने आत्माको उस . परमात्माके खरूपकी प्राप्तिके लिये जाननेकी इच्छा करता हूं इसप्रकार विचारै ॥९॥ मम शत्या गुणग्रामो व्यक्त्या च परमेष्ठिनः । एतावानावयोमैदः शक्तिव्यक्तिस्वभावतः ॥ १० ॥ अर्थ-अनन्तचतुष्टयादि गुणोंका समूह मेरे तो शक्तिकी अपेक्षा विद्यमान है और परमेष्ठी अरहन्त सिद्धोंके व्यक्तिसे प्रगट है, हम दोनोंमें यह शक्ति और व्यक्तिके स्वभावसे ही भेद है. वास्तवमें शक्तिकी अपेक्षा अभेद है ॥ १० ॥ उक्तं च । नासत्पूर्वाश्च पूर्वा नो निर्विशेषविकारजाः। स्वाभाविकविशेपा ह्यभूतपूर्वाश्च तद्गुणाः ॥१॥ अर्थ-तद्गुण कहिये जो आत्माके गुण हैं वे जिनके विशेप नहीं हैं और विकारसे उत्पन्न हुए मतिज्ञानादिक हैं वे संसारी जीवोंके साधारण हैं सो ये गुण तो असत्पूर्व कहिये अपूर्व नहीं हैं विद्यमान हैं तथा पूर्वमें नहीं भी थे, नवीन भी उत्पन्न होते हैं और साभाविक हैं वे विशेष अनंत ज्ञानादिक हैं जो ये अभूतपूर्व है पूर्वमें कभी प्रगट नहीं हुए गेले नवीन है । भावार्थ-द्रव्य अनादिनिधन हैं. उनमें जो पर्याय हैं वे क्षणक्षणमें उत्पन्न होते और विनशते हैं उनमें त्रिकालवा पर्याय हैं वे शक्तिकी अपेक्षा सत्रूप एकही कालमें कहे जाते हैं. और व्यक्तिकी अपेक्षा जिस काल जो पर्याय होता है वही सवरूप कहा जाता है तथा भूत भविप्यत्के पर्याय असत्रूप कहे जाते हैं. इसप्रकार शक्तिकी अपेक्षा सत्का उत्पन्न होना, व्यक्तिकी अपेक्षा असत्का उत्पन्न होना कहा जाता है. इसीप्रकार द्रव्यकी अपेक्षा सत्का उत्पाद और पर्यायकी अपेक्षा असत्का उत्पाद कहा जाता है यही इस श्लोकका आशय है । इसप्रकार आत्मद्रव्यमें भी सामान्यतासे मतिज्ञानादिक गुण भूतपूर्व कहे जाते हैं तथा अभूतपूर्व भी कहे जाते हैं किन्तु वास्तवमें अनन्तचतुष्टयादिकही अभूतपूर्व कहे जाते हैं ऐसे नयविभागसे वस्तुका स्वरूप जानना । तावन्मां पीडयत्येव महादाहो भवोद्भवः। यावज्ज्ञानसुधाम्भोधौ नावगाहः प्रवर्तते ।। ११ ॥ अर्थ-~-तत्पश्चात् ऐसा विचार करै कि-जबतक ज्ञानरूपी समुद्रमें मेरा अवगाह (स्नान करना) नहीं होता तबतक ही मुझे संसारसे उत्पन्न हुआ दाह पीडित करता है ॥ ११॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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