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________________ २९४ रायचन्द्रनैनशास्त्रनालावान् अर्थ-जो पदार्थ पहिले जय जीवित लाभादिक शान्लने तुचित किये अर्थात् कहे हैं वे यदि मृत्युके समय (श्वास नष्ट हुआ तथा इदता हुआ आदि) हो तो सब ही निष्फल हैं अर्थात् इससे नरण ही निश्चय करना ऐसा तात्पर्य है ॥ ५२ ॥ नव जीवन मरणके निश्चय करनेका वर्णन करते हैं, अनिलमवबुध्य सम्यक्पुष्पं हस्तात्मपातयेज्ज्ञानी। मृतजीवितविज्ञाने ततः वयं निश्चयं कुरुते ॥ २३ ॥ अर्थ-पवनको सन्या प्रकारले निश्चय करके ज्ञानी पुरुष अपने हायले पुप्प डाले उससे नृतजीवितन्ना विज्ञान वयं निश्चय करता है ॥ ५३ ॥ वरुणे त्वरितो लाभश्चिरेण भौमे तदर्थिने वाच्यम् । तुच्छतरः पवनाख्ये सिद्धोऽपि विनश्यते वहौ ॥ ५४॥ अर्थ-वरुण पवनके होनेपर त्वरित (शीव)ही लाभ कहै और पृथिवी पवन हो तो बहुतन्नालसे लाभ कहै-और पवनमंडलका पवन हो तो योज लान पह और अमिना पवन हो तौ सिद्ध हुआ लान भी नाशको प्राप्त होता है एले कहना ॥ ५ ॥ । आयाति गतो वरुणे भौमे तत्रैव तिष्ठति सुखेन।। यासन्यन्न श्वसने नृत इति वह्नी समादेश्यम् ॥ ५५ ॥ अर्थ-कोई परदेश गयेहुएका प्रश्न करै तो उसको इस प्रकार कहना–प्रश्न करनेवाला यदि वरुणपवनने प्रश्न करे तो गया हुआ मनुष्य आना है ऐसा कहना और पृथिवी तत्त्वने प्रश्न करे तो वहां ही रहता है और पवनतत्त्वमें पूछे तो जहां रहता था वहां कहीं अन्यन गया है और वहितत्त्वमें कहै कि मरणको प्राप्त हुआ ।। ५५ ॥ घोरतरः संग्रामो हुताशने मरुति भङ्ग एव स्यात् । गगने सैन्यविनाश मृत्युवो युदपृच्छायाम् ॥५६॥ . अर्थ-युद्धके प्रन्नने अमितत्त्व, तौ तीसंग्रान तथा वायुतत्त्वमें नंग होना है और आकाशतत्त्वनें सेनाका विनाश अथवा नृत्यु कहे ॥ ५६ ॥ ऐन्द्र विजयः समरे ततोऽधिको वाञ्छितश्च वरुणे त्यात्। . __सन्धिर्वा रिपुभङ्गात्स्वसिद्धिसंसूचनोपेतः ।। ५७॥ अर्थ-तया पृथिवीतत्वनें संग्राननें विजय कह और वरुण पवनने वांछितसे भी अधिक जय है अथवा सन्धि होना कहें तया ऋके भंग होनेते अपनी सिद्धिकी सूचनासहित कहै ॥ ५७ ॥ (1) इस ग्रंपने प्रथिवी नप देव और वायु ये ४ ही तल माने है, नाचश तलमाना ही नहीं तो फिर आचाशवनन ल क्यों कहा तो हमारी समझने नहीं आया-अनुवादक)।
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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