SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानार्णवः । कुत्र श्वसनविश्रामः का नाड्यः संक्रमः कथम् । का मण्डलगतिः केयं प्रवृत्तिरिति बुद्ध्यते ॥ १३ ॥ अर्थ- - तथा इस पवनके साधनसे ऐसा जाना जाता है कि इस श्वासरूप पवनका कहाँ तौ विश्राम है और नाड़िये कितनी और कौन २ हैं उन नाडियोंकी पलटना किस प्रकार होती है तथा इसकी मंडलगति कौनसी है इसकी प्रवृत्ति कहां है ॥ १३ ॥ स्थिरीभवन्ति चेतांसि प्राणायामावलम्विनाम् । जगद्वृत्तं च निःशेषं प्रत्यक्षमिव जायते ॥ १४ ॥ अर्थ - जो प्राणायामके अवलंबन करनेवाले पुरुष हैं उनके चित्त स्थिर होजाते हैं, चित्तके स्थिर होनेसे ज्ञान विशेष होता है उसके द्वारा जगतके वृत्तांत (प्रवर्तन) प्रत्यक्षके समान जाने जाते हैं ॥ १४ ॥ २८७ यः प्राणायाममध्यास्ते स मंडलचतुष्टयम् । निश्चिनोतु यतः साध्वी ध्यानसिद्धिः प्रजायते ॥ १५ ॥ अर्थ- जो योगी प्राणायामको स्वाधीनतामें करके रहता है अर्थात् इसका साधन करता है सो मुनि पवनमंडलके चतुष्टयको निश्चय करो, जिससे समीचीन ध्यानकी सिद्धि होती है ॥ १५ ॥ उस मंडलचतुष्टयका स्वरूप कहते हैं, - aterforatमध्यास्य स्थितं पुरचतुष्टयम् । पृथक् पवनसंवीतं लक्ष्यलक्षणभेदतः ॥ १६ ॥ अर्थ - नासिका छिद्रको आश्रित होकर चतुष्टय जो पृथ्वीमंडल, अपमंडल, तेजोमण्डल और वायुमण्डल यह चतुष्टय है सो लक्ष्यलक्षण के भेदसे पवन भिन्न २ वेष्टित है इन मंडलोंके पवनकी रीति लक्षणभेदसे भिन्न २ है ॥ १६ ॥ अचिन्त्यमतिदुर्लक्ष्यं तन्मण्डलचतुष्टयम् । स्वसंवेद्यं प्रजायेत महाभ्यासात्कथंचन ॥ १७ ॥ अर्थ - यह मंडलका चतुष्टय है सो अचित्य है अर्थात् चितवनमें नहीं आता तथा दुर्लक्ष्य है अर्थात् देखने नहीं आता सो इस प्राणायाम के बड़े महान् अभ्यास से बड़े कष्टसे कोई प्रकार स्वसंवेद्य ( अपने अनुभवगोचर ) होता है ॥ १७ ॥ तत्रादौ पार्थिवं ज्ञेयं वारुणं तदनन्तरम् । महत्पुरं ततः स्फीतं पर्यन्ते वह्निमण्डलम् ॥ १८ ॥ अर्थ - उन चारोंमेंसे प्रथम तौ पार्थिवको ( पृथिवीमंडलको ) जानना तत्पश्चात् वरुणमंडल (अपूमंडल) जानना तत्पश्चात् पवनमंडल जानना और अंतमें बढ़े हुए वहिमंडलको जानना इस प्रकार चारोंके नाम और अनुक्रम है ॥ १८ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy