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ज्ञानार्णवः । अर्थ-जन्म अर्थात् संसारके खरूपको जानकर ज्ञानसहित प्राणी ऐसा कौन है, जो अपने हितरूप प्रयोजनमें मोहको प्राप्त हो ? अर्थात् कोई नहीं । कैसा है जन्म? दुःखकर है अंत जिसका ऐसा, तथा दुरितसे (पापसे) व्याप्त है। ठग है, क्योंकि ठगके समान किंचित्सुखका लालच वताकर सर्वस्व हर लेता है, और निगोड़का वास कराता है । इस प्रकार संसारका स्वरूप जान ज्ञानी पुरुषको अपना हित भूलना उचित नहीं है, ऐसी उपदेशकी सूचना दी गई है ॥ १० ॥ आगे आचार्य ग्रन्थ रंचनेकी प्रतिज्ञा करते हैं,
अविद्याप्रसरोद्भूतग्रहनिग्रहकोविदम् ।
ज्ञानार्णवमिमं वक्ष्ये सतामानन्दमन्दिरम् ॥ ११ ॥ अर्थ-आचार्य कहते हैं कि, मैं इस ज्ञानार्णव नामके ग्रंथको कहूंगा । कैसा होगा यह ग्रंथ ? अविद्याके प्रसारसे (फैलावसे ) उत्पन्न हुए आग्रह (हठ ) तथा पिशाचको निग्रह करनेमें प्रवीण, तथा सत्पुरुषांकेलिये आनंदका मंदिर । भावार्थयहां अविद्या शब्दसे मिथ्यात्वकर्मके उदयसे अज्ञानका ग्रहण करना चाहिये । उस अज्ञानका प्रसार अनादिकालसे जीवोंके हृदयमें व्याप्त होनेके कारण उत्पन्न हुआ जो एकान्तरूप हठ उसको यह ज्ञानार्णव नामक शास्त्र तथा इसका ज्ञान निराकरण करनेवाला है। और यही सत्पुरुषोंको आनन्दित करनेवाला है, क्योंकि सर्वथा एकान्त पक्ष है, सो वस्तुका खरूप नहीं है, और अवस्तुमें ध्याता ध्यान ध्येय फल काहेका शास्त्रोंमें मिथ्यात्र दो प्रकारका कहा गया है, एक अगृहीत दूसरा गृहीत । इनमसे अगृहीत .मिथ्यात्व तो जीवोंके विना उपदेश ही अनादिकालसे विद्यमान है, सो इसमें एकान्तपक्ष संसारदेह भोगोंको ही अपना हित समझ लेना है । इस प्रकार समझ लेनेसे जीवोंके आर्त रौद्रध्यान खयमेव प्रवर्तते हैं ।
और गृहीत मिथ्यात्व है सो उपदेशजन्य है, उसके कारण यह जीव वस्तुका स्वरूप सर्वथा सत् अथवा असत् , सर्वथा नित्य तथा अनित्य, तथा सर्वथा एक तथा अनेक, सर्वथा शुद्ध तथा अशुद्ध इत्यादि. भिन्न धर्मियोंका कहा हुआ सुनकर उसी पक्षको दृढकर उसीको मोक्षमार्ग समझ लेता है, वा श्रद्धान करलेता है, सो उस श्रद्धानसे कुछ भी कल्याणकी सिद्धि नहीं है । इस कारण उस एकांतहटका निराकरण जव स्याद्वादकी कथनी सुनै, तव ही सर्वथा नष्ट हो । वस्तुका यथार्थ स्वरूप जाने, और श्रद्धान करे, तब ही ध्याता ध्यान ध्येय फलकी संभवता वा असंभवताका निश्चय हो । इसी अभिप्रायसे आचार्य महाराजने यह ज्ञानार्णव शास्त्र रचा है । इसीसे समस्त संभवासंभव जाना जायगा, ऐसा आशय व्यक्त होता है ।। ११ ॥
अपि तीर्येत वाहुभ्यामपारो मकरालयः। न पुनः शक्यते वक्तुं मद्विधैर्यागिरक्षकम् ॥ १२ ॥