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________________ ज्ञानार्णवः। .. हुये कि कोई हमको बचाओ ऐसे दीन प्रार्थना करनेवाले हों, तथा क्षुधा तृषा खेद आदिकसे पीडित हों, तथा शीत उष्णतादिकसे पीड़ित हों तथा निर्दय पुरुषोंकी, निर्दयतासे रोके हुए (पीडित किये हुए) मरणके दुःखको प्राप्त हों, इस प्रकार दुःखी जीवोंको देखने सुननेसे उनके दुःख दूर करनेके उपाय करनेकी बुद्धि हो उसे करुणां' नामकी भावना कहते हैं ॥ ८ ॥९॥ १०॥ अघ प्रमोदभावनाको कहते हैं, तपाश्रुतयमोद्युक्तचेतसां ज्ञानचक्षुषाम् । विजिताक्षकपायाणां खतत्त्वाभ्यासशालिनाम् ॥ ११ ॥ जगत्रयचमत्कारिचरणाधिष्ठितात्मनाम् । तद्गुणेषु प्रमोदो यः सद्भिः सा मुदिता मता ॥१२॥ अर्थ-'जो पुरुष तप शास्त्राध्ययन और यम नियमादिकमें उद्यमयुक्त चित्तवाले हैं तथा ज्ञानहीं जिनके नेत्र हैं इन्द्रिय, मन और कपायोंको जीतनेवाले हैं तथा खतत्त्वाभ्यास करनेमें चतुर हैं जगतको चमत्कृत करनेवाले चारित्रसे जिनका आत्मा अधिष्ठित (आश्रित) है ऐसे पुरुषोंके गुणोंमें प्रमोदका (हर्षका ) होना सो मुदिता कहिये प्रमोदभावना है ॥ ११ ॥ १२॥ अब माध्यस्थ्य भावनाको कहते हैं, क्रोधविहेषु सत्त्वेषु निस्त्रिंशक्रूरकर्मसु । मधुमांससुरान्यस्त्रीलब्धेष्वत्यन्तपापि ॥ १३ ॥ देवागमयतिवातनिन्दकेष्वात्मशंसिषु। . नास्तिकेषु च माध्यस्थ्यं यत्सोपेक्षा प्रकीर्तिता ॥ १४॥ अर्थ-जो प्राणी क्रोधी हों, निर्दय व क्रूरकर्मी हों, तथा मधु मांस मद्य और परखीमें लुब्ध (लम्पट) तथा आसक्त व्यसनी हों, और अत्यंत पापी हों तथा देव:शास्त्र गुरुओंके समूहकी निंदा करनेवाले और अपनी प्रशंसा करनेवाले हों तथा नास्तिक हों, ऐसे जीवोंमें रागद्वेपरहित मध्यस्थभाव होना सो उपेक्षा कही है । उपेक्षा नाम उदासीनता (वीतरागता)का है सो यही माध्यस्थ्यभावना है ॥ १३ ॥ १४ ॥ एता मुनिजनानन्दसुधास्यन्दैकचन्द्रिकाः। . . 'ध्वस्तरागाधुरुक्लेशा लोकाग्रपथदीपिकाः ॥ १५॥ . . अर्थ-इस प्रकार ये ४ भावनायें कहीं सो मुनिजनोंके आनंदरूप अमृतके झरनेको चन्द्रमाकी चांदनीके समान हैं क्योंकि इनसे रागादिकका बड़ा क्लेश ध्वस्त हो जाता है अर्थात् जो इन भावनाओंसे युक्त हो उसके कपायरूप परिणाम नहिं होते तथा ये भावनायें लोकाग्रपथको (मोक्षमार्गको) प्रकाश करनेके लिये दीपिका (चिराग') हैं.॥ १५ ॥ ..
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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