SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 292
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६८ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् . यच्चालेख्य महत्वमुन्नतमना राजेत्यहं मन्यते तत्तुर्य: प्रवदन्ति निर्मलधियो रौद्रं भवाशंसिनाम् ॥ २९ ॥ अर्थ- - यह प्राणी रौद्र (क्रूर) चित्त होकर बहुत आरंभ परिग्रहों में रक्षार्थ नियमसे उद्यम करे और उसमें ही संकल्पकी परंपराको विस्तारै तथा रौद्रचित होकर ही महत्ताका अवलंबन करके उन्नतचित्त हो, ऐसा मानै कि मैं राजा हूं ऐसे परिणामको निर्मल बुद्धिवाले महापुरुष संसारकी वांछा करनेवाले जीवोंके चौथा रौद्रध्यान कहते हैं ॥ २९ ॥ उपजातिः । आरोप्य चापं निशितैः शरौघैर्निकृत्य वैरिब्रजमुद्धताशम् । दग्ध्वा पुरग्रामवराकराणि प्राप्स्ये ऽहमैश्वर्यमनन्यसाध्यम् ॥ ३० ॥ इन्द्रवज्रा । आच्छिद्य गृह्णन्ति धरां मदीयां कन्यादिरत्नानि च दिव्यनारीं । ये शत्रवः सम्प्रति लुब्धचित्तास्तेषां करिष्ये कुलकक्षदाहम् ॥ ३१ ॥ मालिनी । सकलभुवनपूज्यं वीरवर्गोपसेव्यम् स्वजनधनसमृद्धं रत्नरामाभिरामम् । अमितविभवसारं विश्व भोगाधिपत्यम् प्रबलरिपुकुलान्तं हन्त कृत्वा मयासम् ॥ ३२ ॥ उपजातिः । भित्वा भुवं जन्तुकुलानि हत्वा प्रविश्य दुर्गाण्युदधिं विलय । कृत्वा पदं मूर्ध्नि मदोद्धतानां मयाधिपत्यं कृतमत्युदारम् ॥ ३३ ॥ जलानलव्यालविषप्रयोगैर्विश्वासभेदप्रणधिप्रपञ्चैः । उत्साद्य निःशेषमरातिचक्रं स्फुरत्ययं मे प्रबलप्रतापः ॥ ३४ ॥ इत्यादि संरक्षणसन्निबन्धं सचिन्तनं यत्क्रियते मनुष्यैः । संरक्षणानन्दभवं तदेतद्रौद्रं प्रणीतं जगदेकनाथैः ॥ ३५ ॥ अर्थ — जगतके अद्वितीय नाथ सर्वज्ञ देवने मनुष्योंके आगे लिखे विचारोंको विषय ' संरक्षणके आनंदसे उत्पन्न हुआ रौद्रध्यान कहा है । जैसे मनुष्य विचारै कि- मैं तीक्ष्ण बार्णोंके समूहोंसे धनुषको आरोपण करके उद्धताशय वैरियोंके समूहको छेदनपूर्वक उनके पुरग्राम श्रेष्ठ आकर (खानि ) आदिको दग्ध करके साधनेमें न आवै ऐसे ऐश्वर्य व निष्कंट राज्यको प्राप्त होऊंगा ॥ ३० ॥ तथा जो वैरी इस समय मेरी पृथिवी कन्या आदि रत्नों और सुंदर स्त्रीको लुब्धचित्त हुए छीनकर लेते हैं उनके कुलरूपी वनको मैं दग्ध करूंगा ॥ ३१ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy