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________________ ज्ञानार्णवः । आगे अन्तिम तीर्थंकर श्रीवर्द्धमान भट्टारकको प्रार्थनारूप वचन कहते हैं,श्रियं सकलकल्याणकुमुदाकरचन्द्रमाः। देवः श्रीवर्द्धमानाख्यः क्रियाझ्व्याभिनन्दिताम् ॥५॥ अर्थ-आचार्यमहाराज कहते हैं कि, श्रीवर्द्धमान नामा अन्तिम तीर्थंकर देव हैं, सो भव्य पुरुषोंकर प्रशंसित और इच्छित लक्ष्मीको करो । कैसे हैं प्रभु ? समस्त प्रकारके कल्याणरूपी चन्द्रवंशी कमलोंके समूहको प्रफुल्लित करनेकेलिये चन्द्रमाके समान हैं। भावार्थ भगवान् समस्त कल्याणोंसे परिपूर्ण हैं, समस्त विघ्नोंको विनाश करनेवाले हैं। और इस कालमें जिनके वचन मोक्षमार्गके उपदेशरूप प्रवर्ते हैं, ऐसे भगवान्से वांछित लक्ष्मीकी प्रार्थना करना युक्त है ॥ ५ ॥ आगे ध्यानकी सिद्धिके अर्थ श्रीगोतमगणधरको नमस्कार करते हैं, श्रुतस्कन्धनभश्चन्द्रं संयमश्रीविशेषकम् । इन्द्रभूति नमस्यामि योगीन्द्रं ध्यानसिद्धये ॥६॥ अर्थ-आचार्य कहते हैं कि, योगियोंमें इन्द्रके समान इन्द्रभूति कहिये श्रीगोतम नामक गणधर भगवान्को ध्यानकी सिद्धिके अर्थ नमस्कार करता हूं। कैसे हैं इन्द्रभूति ? श्रुतस्कन्ध कहिये द्वादशांगरूप शास्त्र, सो ही हुआ आकाश, उसमें प्रकाश करनेके अर्थ चन्द्रमाके समान हैं । फिर कैसे हैं ? संयमरूपी लक्ष्मीको विशेप करनेवाले हैं। भावार्थश्रीगोतमगणधरने श्रीवर्धमानखामीकी दिव्यध्वनि सुनकर द्वादशांगरूप शास्त्रकी रचना की, और आप संयम पाल और ध्यान करके मोक्षको पधारे । पश्चात् उनसे ध्यानका मार्ग प्रवर्ता । इस कारण उनको इस ध्यानके (योगके ) ग्रंथकी आदिमें नमस्कार करना युक्त समझके नमस्कार किया है ॥ ६॥ आगे सर्वज्ञके स्याद्वादरूप शासनको आशीर्वादरूप वचन कहते हैं, प्रशान्तमतिगम्भीरं विश्वविद्याकुलग(?)हम् । भव्यैकशरणं जीयाच्छ्रीमत्सर्वज्ञशासनम् ॥७॥ अर्थ-श्रीमत् कहिये निर्वाध लक्ष्मीसहितं जो सर्वज्ञका शासन (आज्ञामत ) है, सो जयवन्त प्रवत्तों । कैसा है सर्वज्ञका शासन ? व्याकरण, न्याय, छन्द, अलंकार, साहित्य यन्त्र, मंत्र, तन्त्र, ज्योतिष, वैद्यक, निमित्त, और मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति आदि विद्याओंके वसनेका कुलग्रह है; तथा भव्य जीवोंको एक मात्र अद्वितीय शरण है । प्रशान्त है, तथा समस्त आकुलता और क्षोभका मिटानेवाला है, अतएव अति गंभीर है । मन्दबुद्धि प्राणी इसका थाह नहीं पा सकते । भावार्थ-सर्वज्ञका मत समस्त जीवोंका हित करनेवाला है सो जयवन्त प्रवर्ती, ऐसा आचार्य महाराजने अनुरागसहित आशीर्वाद दिया है ॥ ७ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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