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________________ २५६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अर्थात् उत्तम संहननवाले पुरुषके एकाग्र चिन्ताका रोध ही ध्यान है सो यह अन्तर्मुहूर्त्त - पर्यन्त ही रहता है इस प्रकार पूर्वाचार्यांने ध्यानका लक्षण कहा है ॥ १५ ॥ एकचिन्तानिरोधो यस्तद्ध्यानं भावना परा । अनुप्रेक्षार्थचिन्ता वा तज्ज्ञैरभ्युपगम्यते ॥ १६ ॥ अर्थ - जो एक चिन्ताका निरोध है एक ज्ञेयमें ठहरा हुआ है वह तो ध्यान है और इससे भिन्न है सो भावना है उसे ध्यानके और भावनाके जाननेवाले विद्वान् अनुप्रेक्षा अथवा अर्थचिन्ता भी कहते हैं ॥ १६ ॥ प्रशस्तेतर संकल्पवशात्तद्भिद्यते द्विधा । इष्टानिष्टफलप्रासेर्बीजभूतं शरीरिणाम् ॥ I अर्थ —-वह पूर्वोक्त ध्यान प्रशस्त और अप्रशस्त भेदसे दो प्रकारका है, सो जीवोंके इष्ट अनिष्ट रूप फलकी प्राप्तिका बीजभूत ( कारण खरूप ) है । भावार्थ - प्रशस्त ध्यानसे उत्तम फल होता है और अप्रशस्त ध्यानसे बुरा फल होता है ॥ १७ ॥ अस्तरागो सुनिर्यत्र वस्तुतत्त्वं विचिन्तयेत् । तत्प्रशस्तं मतं ध्यानं सूरिभिः क्षीणकल्मषैः ॥ १८ ॥ १७ ॥ अर्थ - जिस ध्यानमें मुनिं अस्तराग ( रागरहित ) हो जाय और वस्तुखरूपका चिन्तवन करै उसको निष्पाप आचार्योंने प्रशस्त ध्यान माना है ॥ १८ ॥ अज्ञातवस्तुतत्त्वस्य रागाद्युपहतात्मनः । स्वातंत्र्यवृत्तिर्या जन्तोस्तदसडयानमुच्यते ॥ १९ ॥ 1 अर्थ - जिसने वस्तुका यथार्थ स्वरूप नहीं जाना तथा जिसका आत्मा रागद्वेष मोहसे 'पीडित है ऐसे जीवकी स्वाधीन प्रवृत्तिको अप्रशस्त ध्यान कहा जाता है । भावार्थअप्रशस्त ध्यान जीवों के विना उपदेशके खयमेव होता है क्योंकि यह अनादि वासना है ॥ १९ ॥ अब ध्यानके भेद कहते हैं, आर्तरौद्र विकल्पेन दुर्ध्यानं देहिनां द्विधा । द्विधा प्रशस्तमप्युक्तं धर्मशुक्लविकल्पतः ॥ २० ॥ अर्थ — जीवोंके अप्रशस्त ध्यान आर्तरौद्र भेदसे दो प्रकारका है तथा प्रशस्त ध्यान भी धर्म और शुक्ल भेदसे दो प्रकारका कहा गया है ॥ २० ॥ स्यातां तत्रातरौद्रे दे दुर्ध्यानेऽत्यन्तदुःखदे | धर्मशुक्ले ततोऽन्ये द्वे कर्मनिर्मूलनक्षमे ॥ २१ ॥ अर्थ - उक्त ध्यानोंमें आर्त रौद्र नामवाले दो जो अप्रशस्त ध्यान हैं वे तो अत्यन्त --
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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