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________________ २४८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् साम्यकोटि समारूढो यमी जयति कर्म यत् । निमिषान्तेन तजन्मकोटिभिस्तपसेतरः ॥ १२॥ ___ अर्थ-समभावकी हदको आरूढ हुआ संयमी मुनि जो नेत्रके टिमकार मात्रसे कमको जीतता है अर्थात् कर्मोंको क्षय करता है, उतना इतर पुरुष समभावरहित कोटी तपोंके करनेपर भी नहीं कर सकता, यह साम्यभावका माहात्म्य है ॥ १२ ॥ साम्यमेव परं ध्यानं प्रणीतं विश्वदर्शिभिः तस्यैव व्यक्तये नूनं मन्येऽयं शास्त्रविस्तरः ॥ १३॥ . अर्थ-आचार्य महाराज कहते हैं कि-सर्वज्ञ भगवानने साम्यभावको ही उत्कृष्ट ध्यान कहा है और यह शास्त्रोंका विस्तार है सो निश्चयतः उस साम्यभावको प्रगट करनेके लिये ही है ऐसा मैं मानता हूं। भावार्थ-शास्त्रमें जितने व्याख्यान हैं वे साम्यहीको दृढ करते हैं ॥ १३ ॥ साम्यभावितभावानां स्यात्सुखं यन्मनीषिणाम् । तन्मन्ये ज्ञानसाम्राज्यसमत्वमवलम्वते ॥ १४॥ .. ... अर्थ-आचार्य महाराज कहते हैं कि-साम्य भावोंसे पदार्थोके विचार करनेवाले बुद्धिमान् पुरुषोंके जो सुख होता है सो मैं ऐसा मानता हूं कि वह ज्ञानसाम्राज्यकी ( केवलज्ञानकी ) समताको अवलम्बन करना है । भावार्थ-समभावोंसे केवल ज्ञान उत्पन्न होता है उससे पहिले ही समभावमें ऐसा सुख है कि उसे केवल ज्ञानके समान ही माना जाता है क्योंकि दुःख तो रागादिकसे है उनके विना केवल मात्र सुख ही सुख है ॥ १४ ॥ या स्वभावोत्थितां साध्वीं विशुद्धिं वस्य वाञ्छति। स धारयति पुण्यात्मा समत्वाधिष्ठितं मनः ॥१५॥ . अर्थ-जो पुरुष अपने खभावसे उत्पन्न हुई समीचीन विशुद्धताको चाहते हैं सो पुरुष अपने मनको समभावोंसहित धारता है वही पुण्यात्मा है महाभाग्य है ॥ १५ ॥ तनुनयविनिर्मुक्तं दोषत्रयविवर्जितम् । यदा वेत्त्यात्मनात्मानं तदा साम्ये स्थितिर्भवेत् ॥ १६ ॥ अर्थ-जिस समय यह आत्मा अपने आत्माको औदारिक, तैजस और कार्मण इन तीन शरीरोंसे तथा रागद्वेषमोहसे रहित जानता है तब ही समभावमें स्थिति ( स्थिरता) होती है ॥ १६ ॥ अशेषपरपर्यायैरन्यद्रव्यैर्विलक्षणम् । । निश्चिनोति यदात्मानं तदा साम्यं प्रसूयते ॥ १७॥...
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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