SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानार्णवः । २४५ अर्थ - हे नात्मन् ! मोहरूपी राजाके पालेहुए क्रूर रागादि शत्रुओंको शान्तभावरूप शस्त्र से छेदन करके मोक्षमार्गका अवलोकन कर ॥ ३७ ॥ आर्या । इति मोहवीरवृत्तं रागादिवरूथिनी समाकीर्णम् । सुनिरूप्य भावशुद्धया यतख तद्बन्धमोक्षाय ॥ ३८ ॥ अर्थ - हे आत्मन् ! इस प्रकार मोहरूपी सुभटका वृत्तान्त है. सो यह रागादिरूपी सेनाके सहित हैं इसकारण इसे भले प्रकार विचार करके इसके बंधसे छूटनेके लिये यत्न कर ॥ ३८ ॥ इस प्रकार राग द्वेष मोहका वर्णन किया और इनके नष्ट करनेका उपदेश दिया । यहां अभिप्राय यह है कि अन्यमती यमनियमादि योग के साधनोंसे मनको वश करते हैं तथापि उनके मनमें रागद्वेषमोहका यथार्थ स्वरूप तथा उनके जीतनेका वर्णन सत्यार्थ नहीं है और इन रागादिकके जीते विना मोक्षके कारणभूत ध्यानकी सिद्धि नहीं है, इसकारण रागद्वेप मोहका वर्णन किया. इनका यथार्थ स्वरूप तथा जीतनेका विधान जैनशास्त्र में ही है उसी रीति से ही साधन करके ध्यान करनेसे मोक्षकी प्राप्ति होती है | कवित्त (३१ वर्ण. ) मिथ्या कर्म उदै होय, राग द्वेप मोह जोय, वन्ध हेतु गांढे तेजु भवमे भ्रमावते । मिथ्याभाव बीते रहें चारितके घातक जे, चन्ध करे तुच्छभाव निर्जरा चढावते ॥ सम्यक दरश थारि राग द्वेप मोह टारि, चारित सवाँरि मुनि ध्यानको धरावते । निजरूप लय लाय घातिया नशाय ज्ञान - केवलको पाय धाय मोक्षमें रमावते ॥ २३ ॥ इति श्रीशुभचन्द्राचार्यविरचिते ज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे रागद्वेषवर्णनो नाम त्रयोविंशं प्रकरणं समाप्तम् ॥ २३ ॥ अथ चतुर्विंशं प्रकरणम् । अब रागद्वेप मोहके अभावसे साम्य अर्थात् समताभाव होते हैं जिससे कि, तृण, कंचन, शत्रु, मित्र, निन्दा, प्रशंसा, वन, नगर, सुख, दुःख, जीवन, मरण इत्यादि पदार्थों में इष्ट
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy