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________________ २२८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भिन्न समस्त प्राणियोंके मन मिलानेके लिये सूत्रधार (शिक्षादेनेवाला आचार्य) है। तथा वसन्तऋतुरूपी मित्रने अतिशयरूप कर दिया है प्रताप जिसका ऐसा, क्योंकि वह वसन्तऋतु ऐसा हैं कि-विविधप्रकारकी वनकी पंक्तिके सुगन्धित परागमें मिले अमरोंके समूह जिसमें ऐसे प्रफुल्लित पुष्पोंके गुच्छेरूपी चंचलकटाक्षोंसे प्रगट है सौभाग्यसुंदरता जिसकी, तथा सहकारलता ( आमकी मंजरी) के किशलय (अंकुर) रूपी हाथोंसे बखेरा है मंजरीका पराग वही हुआ पिष्टातक (सुगंधित अवीर ) उसके द्वारा प्रगट किया है अपने प्रवेशका उत्सव जिसने ऐसा, तथा-मदसे वाचालित भ्रमरियोंके कोमल शब्दोंके मिलनेसे पुष्ट हुए कोकिलाओंके समूहोंके शब्दरूपी संगीत हे प्रिय जिसको ऐसा तथा~मलयाचलके सुगंधित पवनसें उदय हुआ है सौभाग्य जिसका, वह मलयाचलका सुगंधित पवन कैसा है कि-मलयगिरिके चौतरफके वनमें रहनेवाले चंदनकी लतामंजरीको नृत्यके उपदेश देनेमें प्रवीण है. अर्थात् पवनसे चंदनलतायें हिलती हैं उसकी उत्प्रेक्षा कीगई है कि मानो पवन है सो इन लताओंको नृत्यकी शिक्षा दे रहा है । तथा फिर कैसा है मलयाचलका पवन कि-संभोगकी अतिशयतासे खेदखिन्न जो सोकी सर्पिणी उनके मुखसे ग्रासीभूत होगई है शिखा जिनकी तौभी विरहिणी जो विप्रलव्धा वियोगिनी स्त्री उनके निश्वासोंसे पुष्ट हुआ है काय जिसका ऐसा, तथा-केरलीजं अर्थात् केरलदेशकी स्त्रियोंके कुरलोंको (मुखके जलक्षेपणको) कंपित करनेमें चतुर है-तथाउत्कंपित किये हैं कुंतलदेशकी स्त्रियोंके केश जिसने, तथा प्राप्त हुए संभोगके खेदसे उत्पन्न हुए लाटदेशकी स्त्रियोंके ललाटस्थ पसीनेके जलकणोंके पान करनेमें इच्छावान् है तथा ग्रहण किये हैं अनेक निर्झरके शीतल जलके कण जिसने, तथा बकुलसिरी (मौलसिरी ) आदि सुगंधित वृक्षोंके आमोदित परागोंके समूहसे भरा हुआ-फिर कैसा है पवन ? कि—समस्त प्रकार लूट लिया है पाठलवृक्षोंका सौरभपराग जिसने-तथा सम्पूर्णतासे मिला है मालतीका सुगंध जिसमें तथा मंद संचरण करनेका है खभाव जिसमें तथा विषयोंमें आकुलित किया है समस्त भुवनोंके जीवोंका मन जिसने, ऐसे मलयके पवनसे वसंत ऋतुकी सुभगता प्रकट होती है। फिर कैसा है काम?-आरंभ किया जो उत्तम तप उसको तपनेसे खेद खिन्न हुए मुनिजनोंद्वारा वांछित जो प्रवेशका उत्सव उसके द्वारा स्वर्ग मोक्षके द्वारका जो उघड़ना (खुलना) उसमें वज्रमयी अर्गलाके समान है, अर्थात् मुनिजनोंके वर्गमोक्षके प्रवेशद्वारको बंद करनेवाला हैं तथा समस्त जगतको जीतनेकी वैजयन्ती ध्वजारूप किया है चतुर स्त्रियोंके भौंहरूपी विभ्रमको जिसने ऐसा । तथा—क्षोभण कहिये चित्तके चलने आदि मुद्राविशेषमें (आकारवि. शेषमें) शाली कहिये चतुर है, अर्थात् समस्त जगतके चित्तको चलायमान करनेवाले आकारोंको प्रगट करनेवाला है । इस प्रकार समस्त जगतको वशीभूत करनेवाले का
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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