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________________ २१४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् दुःखमेवाक्षज सौख्यमविद्याव्याललालितम् । मूर्खास्तत्रैव रज्यन्ते न विद्मः केन हेतुना ॥१०॥ अर्थ-इस जगतमें इन्द्रियजनित सुख ही दुःख है । क्योंकि यह सुख अविद्यारूपसर्पसे लालित है; परन्तु मूढ जन इसीमें ही रंजायमान रहते हैं। सो हम नहीं जानते कि इसमें क्या कारण है ? ॥ १० ॥ यथा यथा हृषीकाणि खवशं यान्ति देहिनाम् । तथा तथा स्फुरत्युच्चैहृदि विज्ञानभास्करः॥ ११ ॥ अर्थ-जीवोंके इन्द्रियें जैसे २ वश होती हैं तैसे २ उनके हृदयमें विज्ञानरूपी सूर्य उच्चतासे ( उत्तमतासे ) प्रकाशमान होता है ॥ ११ ॥ विषयेषु यथा चित्तं जन्तोमैग्नमनाकुलम् । तथा यद्यात्मनस्तत्त्वे सद्यः को न शिवीभवेत् ॥ १२ ॥ अर्थ-जिसप्तकार जीवोंका चित्त विषयसेवनमें निराकुलरूप तल्लीन होता है उसप्रकार यदि आत्मतत्त्वमें लीन हो जाय तो ऐसा कौन है जो मोक्षस्वरूप न हो ? ॥ १२ ॥ अतृप्तिजनक मोहदाववढेमहेन्धनम् । असातसन्तते/जमक्षसौख्यं जगुर्जिनाः ॥ १३ ॥ अर्थ-इस इन्द्रियजनित सुखको जिनेन्द्र भगवानने तृप्तिका उत्पन्न करनेवाला नहीं कहा है। क्योंकि जैसे जैसे यह सेवन किया जाता है तैसे २ भोगलालसा बढ़ती जाती है। तथा यह इन्द्रियजनित सुख मोहरूपी दावानलकी वृद्धि करनेके लिये इन्धनके समान है और आगामी कालमें दुःखकी सन्ततिका बीज ( कारण ) है ॥ १३ ॥ नरकस्यैव सोपानं पाथेयं वा तद्ध्वनि । अपवर्गपुरद्वारकपादयुगलं दृढम् ॥ १४ ॥ विघ्नबीजं विदन्मूलमन्यापेक्षं भयास्पदम् । करणग्राह्यमेतद्धि यदक्षार्थोत्थितं सुखम् ॥१५॥ अर्थ-यह इन्द्रियोंके विषयसे उत्पन्न हुआ सुख नरकका तो सोपान (सीढ़ी, जीना) है. अर्थात् नरकका स्थान पृथिवीसे नीचे है सो उसमें उतरनेकी सीढ़ी विषयसुख ही है। और उस नरकके मार्गमें चलनेके लिये पाथेय ( राहखर्च वगैरह ) भी यही है. तथा मोक्षनगरके द्वार बंद करनेको दृढ़ कपाटयुगल (किवाडोंकी जोड़ी) भी है ॥ १४ ॥ तथा यह सुख विघ्नोंका बीज, विपत्तिका मूल, पराधीन, भयका स्थान तथा इन्द्रियोंसे ही ग्रहण करने योग्य है. यदि इन्द्रिये बिगड़ जायँ तो फिर इसकी प्राप्ति नहीं होती. इस प्रकारका यह इन्द्रियजनित सुख है.॥ १५ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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