SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् कौन है जो आप भी विष पीले ? अर्थात् ज्ञानी पंडित तो कोई नहीं पीवेगा । यदि पीवे तो वह अज्ञानी मूर्ख है । इसीप्रकार मुनि विचारते हैं कि किसीने अपने परिणाम बिगाड़कर मेरा बुरा करना चाहा और मैं उसको निवारण करनेको (समझानेको ) समर्थ न होऊं तो क्या अपने परिणाम बिगाड़कर उसीकी समान बुरा करना उचित है ? कदापि नहीं ॥ ३० ॥ न चेदयं मां दुरितैः प्रकम्पयेदहं यतेयं प्रशमाय नाधिकम् । अतोऽतिलाभोऽयमिति प्रतर्कयन् विचाररूढा हि भवन्ति निश्चलाः ३१ अर्थ-यदि मुनिको कोई दुष्ट दुर्वचनादिक उपसर्ग करे तो वह इसप्रकार करता रहै कि— जो यह दुर्वचन कहनेवाला मुझे पापोंसे भय नहिं उपजावै तो मैं शान्तभावोंके लिये अधिक प्रयत्न नहीं करूं; इस कारण इसने मुझे सावधान किया है कि – पूर्वकालमें जो क्रोधादि पाप किये थे उसीका यह उपसर्ग फल है, सो मुझे यह बड़ा भारी लाभ हुआ. इसप्रकारके विचार में आरूढ होकर मुनिमहाराज निश्चल रहते हैं ॥ ३१ ॥ आर्या । परपरितोषनिमित्तं त्यजन्ति केचिद्धनं शरीरं वा । दुर्वचनबन्धनाद्यैर्वयं रुषन्तो न लज्जामः ॥ ३२ ॥ अर्थ -- फिर मुनिमहाराज कैसा विचार करते हैं कि - परको सन्तुष्ट करनेके लिये अनेक जन अपने धन वा शरीरको छोड़ देते हैं और हम दूसरोंके दुर्वचनवधवन्धनादिकसे रोष करते हुए क्यों लज्जित नहीं होते ? । भावार्थ- जो हमको उपसर्ग करनेसे परको सन्तोष होता है तो अच्छा ही है । हमको क्रोध न करनेसे हमारी क्या हानि है ? उलटा arrant है ? क्योंकि क्रोध करनेसे तो पापबन्ध होगा ॥ ३२ ॥ हन्तुहनिर्ममात्मार्थसिद्धिः स्यान्नात्र संशयः हतो यदि न रुष्यामि रोषश्चेद् व्यत्ययस्तदा ॥ ३३ ॥ अर्थ - किसीने मुझे मारा और जो मैं रोष नहीं करूं तो मारनेवालेकी तो हानि हुई अर्थात् पापबन्ध हुआ; परन्तु मेरे आत्माके अर्थकी सिद्धि हुई अर्थात् पाप नहीं बँधा किन्तु पूर्वके किये पापोंकी निर्जरा हुई, इसमें कोई संदेह नहीं है । और मेरे कदाचित् रोष उपजै तो मेरी द्विगुण हानि हो । अर्थात् एक तो पापबंध हो, दूसरे पूर्वकमकी निर्जरा नहीं हो । इत्यादि विचार करै ॥ ३३ ॥ प्राणात्ययेऽपि सम्पन्ने प्रत्यनीकप्रतिक्रिया । मता सद्भिः खसिद्ध्यर्थं क्षमका स्वस्थचेतसाम् ॥ ३४ ॥ अर्थ -- अपने प्राणका नाश होनेपरभी उपसर्ग करनेवाले शत्रुका इलाज खस्थचित्त पुरुषोंका अपनी सिद्धिके लिये एकमात्र क्षमा करनाही सत्पुरुषोंने माना है ।
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy