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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अर्थ-हे आत्मन् ! तू अपने आत्मामेंही रहता हुआ अपनेको समरत क्लेशोंसे रहित. अमूर्तीक, परम उत्कृष्ट, अविनाशी, विकल्पोंसे और इन्द्रियोंसे रहित अर्थात् अतीन्द्रिय खरूप देख ॥ ३४ ॥
नित्यानन्दमयं शुद्धं चित्खरूपं सनातनम् ।
पश्यात्मनि परं ज्योतिरद्वितीयमनव्ययम् ॥ ३५ ॥ अर्थ-फिर भी कहते हैं कि तू अपने आत्मामें ही अपनेको इसप्रकार टिका हुआ देख-कि-मै नित्य आनन्दमय हूं, शुद्ध हूं, चैतन्यखरूप हूं और सनातन हूं, अविनश्वर हूं, परमज्योति ज्ञानप्रकाशरूप हूं, अद्वितीय हूं और अनव्यय कहिये व्ययविना नहीं हूं । अर्थात् पूर्वपर्यायके व्ययसहित हूं ॥ ३५॥
यस्यां निशि जगत्सुप्तं तस्यां जागर्ति संयमी।
निष्पन्नं कल्पनातीतं स वेत्त्यात्मानमात्मनि ॥ ३६॥ अर्थ-जिस रात्रिमें जगत् सोता है उस रात्रिमें संयमी मुनि जागता है और अपने आत्मामें ही अपनेको निष्पन्न, स्वयंसिद्ध तथा कल्पनारहित जानता है । भावार्थ-जगत् अज्ञानरूपी रात्रिमें सोता है और संयमी ज्ञानरूप सूर्यके उदय होनेसे जागता है ॥३६॥
या निशा सर्वभूतेषु तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥ ३७॥ अर्थ-जो समस्त प्राणियोंमें रात्रि मानीजाती है उसमें तो संयमी जागता है और जिस रात्रिमें समस्त प्राणी जागते हैं वह अपने खरूपावलोकन करनेवाले मुनिकी रात्रि है। भावार्थ-जगतके जीवोंको अपने खरूपका प्रतिभास नहीं है इस कारण इनको यही रात्रि है । इसमें सब जीव सोते हुए हैं और संयमी मुनिजनोंको अपने खरूपका प्रतिभास है इसकारण वे इसमें जागते हैं । और जगतके प्राणी अज्ञानमें जागते हैं । यह अज्ञान ही मुनिकी रात्रि है । तात्पर्य यह कि मुनियोंके अज्ञान है ही नहीं ।। ३७ ॥
यस्य हेयं न वाऽऽदेयं निःशेष भुवनत्रयम् ।
उन्मीलयति विज्ञानं तस्य खान्यप्रकाशकम् ॥ ३८॥ अर्थ-जिस मुनिके समस्त त्रिभुवन हेय अथवा आदेय नहीं हैं उस मुनिके खपरप्रकाशक ज्ञानका उदय होता है । क्योंकि जबतक हेय उपादेय बुद्धिमें रहै तवतक ज्ञान निर्मलतासे नहीं फैलता (बढ़ता) ॥ ३८ ॥
शार्दूलविक्रीडितम् । दृश्यन्ते भुवि किं न तेऽल्पमतयः संख्याव्यतीताश्चिरम्
ये लीलां परमेष्ठिनो निजनिजैस्तन्वन्ति वाग्भिः परम् ।