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________________ १९२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् . . अर्थ-इस त्रिभुवनकरके पूजित सम्यक्रत्नत्रयको द्रव्य-क्षेत्र काल-भावरूप सामग्री के अनुसार अंगीकार करके भव्य पुरुप शीघ्र ही कर्मोसे छूटता है । अर्थात् मुक्त होता है ॥ २१॥ एतत्समयसर्वखं मुक्तेश्चैतनिवन्धनम् । हितमेतद्धि जीवानामेतदेवाग्रिमं पदम् ॥ २२ ॥ अर्थ-यह रत्नत्रय ही सिद्धान्तका सर्वख है और यही मुक्तिका कारण है तथा यही जीवोंका हित और प्रधान और प्रधान पद है ॥ २२ ॥ ये याता यान्ति यास्यन्ति यमिनः पदमव्ययम् । समाराध्यैव ते नूनं रत्नत्रयमखण्डितम् ॥ २३ ॥ अर्थ-निश्चयकरके इस रत्नत्रयको अखंडित (परिपूर्ण) आराध करके ही संयमी मुनि आजतक पूर्वकालमें मोक्ष गये हैं और वर्तमानमें जाते हैं तथा भविप्यतमें जायगे ॥ २३ ॥ साक्षादिदमनासाद्य जन्मकोटिशतैरपि । . दृश्यते न हि केनापि मुक्तिश्रीमुखपङ्कजम् ॥ २४ ॥ . अर्थ-इस रत्नत्रयको प्राप्त न होकर करोड़ो जन्म धारण करनेपर भी कोई मुक्तिरूपी लक्ष्मीके मुखरूपी कमलको साक्षात् नहीं देख सकता ॥ २४ ॥ अब अध्यात्मभावना करके शुद्ध निश्चयनयकी प्रधानतासे रत्नत्रयका वर्णन करते हैं दृग्बोधचरणान्याहुः खमेवाध्यात्मवेदिनः । यतस्तन्मय एवासौ शरीरी वस्तुतः स्थितः ॥२५॥ अर्थ-जो अध्यत्मिके जाननेवाले हैं वे दर्शन, ज्ञान, और चारित्र तीनोंको एक आत्माही कहते हैं क्योंकि परमार्थदृष्टि से देखा जाय तो यह शरीरी आत्मा उन तीनोंसे तन्मय ही है, कुछ भी पृथक् अर्थात् अन्य नहीं हैं । यद्यपि भावभाविके भेदसे तीन भेद किये गये हैं, तथापि वास्तवमें एक ही है ॥ २५ ॥ निर्णीतेऽस्मिन्खयं साक्षान्नापरः कोऽपि मृग्यते । यतो रत्नत्रयस्यैषः प्रसूतेरग्रिमं पदम् ॥ २६ ॥ अर्थ-इस आत्माको खयं आपहीसे साक्षात् निर्णय करनेसे और कोई भी अन्य नहीं हेरा जाता । केवल मात्र यह आत्मा ही रत्नत्रयकी उत्पत्तिका मुख्य पद है ॥ २६ ॥ जानाति यः स्वयं खस्मिन्वखरूपं गतभ्रमः। तदेव तस्य विज्ञानं तद्वृत्तं तच्च दर्शनम् ॥ २७ ॥ अर्थ-जो पुरुष अपनेमें अपनेहीसे अपने निजरूपको भ्रमरहित होकर जानता है,
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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