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ज्ञानार्णवः । अर्थ-वास्तु (घर), क्षेत्र (खेत), धन, धान्य, द्विपद (मनुष्य,) चतुष्पद (पशु, हाथी, घोड़े, शयनासन, यान; कुप्य और भांड ये वहारके दश परिग्रह हैं ॥ ४ ॥
निःसङ्गोऽपि मुनिन स्यात्समूर्छः संगवर्जितः।
यतो मूछैव तत्त्वज्ञैः संगसूतिः प्रकीर्तिता ॥५॥ अर्थ-जो मुनि निःसंग हो अर्थात् बाह्य परिग्रहसे रहित हो और ममत्व करता हो वह निःपरिग्रही नहीं हो सकता क्योंकि, तत्त्वज्ञानी विद्वानोंने मूर्छाको (ममत्त्वरूप परिणामोंको) ही परिग्रहकी उत्पत्तिका स्थान माना है ॥ ५॥
___आर्यो।
खजनधनधान्यदाराः पशुपुत्रपुराकरा गृहं भृत्याः ।
मणिकनकरचितशय्या वस्त्राभरणादि बाह्यार्थीः ॥६॥ अर्थ-खजन, धन, धान्य, स्त्री, पशु, पुत्र, पुर, खानि, घर, नौकर, माणिक, रत, सोना, रूपा, शय्या, वस्त्र, आभरण, इत्यादि सव ही पदार्थ वाह्य परिग्रह हैं ।। ६ ।।
उक्तं च । "मिथ्यात्ववेदरागा दोषा हास्यायोऽपि षट् चैव ।
चत्वारश्च कषायाश्चतुर्दशाभ्यन्तरा ग्रन्थाः॥१॥ __ अर्थ-मिथ्यात्व १ वेदराग ३ हास्यादिक (हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा) ६ और क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषाय, इसप्रकार अन्तरंगके चौदह परिग्रह हैं।॥१॥"
संवृतस्य सुवृत्तस्य जिताक्षस्यापि योगिनः ।
व्यामुह्यति मनः क्षिप्रं धनाशाव्यालविप्लुतम् ॥७॥ अर्थ-जो मुनि संवरसहित हो, उत्तम चरित्रसहित हो तथा जितेन्द्रिय हो उसका भी मन. धनाशारूपी सर्पसे पीड़ित होता हुआ तत्काल ही मोहको प्राप्त होता है, इसकारण धनकी आशा अवश्य छोड़नी चाहिये ॥ ७ ॥
त्याज्य एवाखिलः संगो मुनिभिर्मोक्तुमिच्छुभिः ।
स चेत्त्यक्तुं न शक्नोति कार्यस्तह्यात्मदर्शिभिः ॥८॥ . अर्थ-मुक्त होनेके इच्छक मुनियोंको समस्त प्रकारका परिग्रह अर्थात् सर्व पदार्थोका संग छोड़ना चाहिये । कदाचित् अन्तरंगके परिग्रहमेंसे कोई परिग्रह विद्यमान हैं तो जो आत्मदर्शी बड़े मुनि हों उनकी संगति में रहै। क्योंकि मुनिको समस्त संग त्याग ध्यानस्थ रहना कहा है। यदि ध्यानस्थ नहीं रहा जाय तो अचार्योंके साथ संघमें रहै ॥ ८ ॥
नाणवोऽपि गुणा लोके दोषा शैलेन्द्रसन्निभाः। भवन्त्यत्र न सन्देहः संगमासाद्य देहिनाम् ॥ ९॥ ..
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