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है। महाराज सिंहलके विषयमें इतना कहनेको और रह गया कि राजा मुंज राज्यतृष्णा और असूयासे उन्हें भी मारनेका प्रयत्न करने लगा। एक बार एक मदोन्मत हाथी उनपर छोड़ा; परन्त उसे उन्होंने वशमें कर लिया । अन्तमें एक दासीके द्वारा जो तैलमर्दन करती थी, सिंहलके नेत्र फुड़वा कर वह तृप्त हुऔ । उसी समय सिंहलके प्रसिद्ध पण्डितमान्य और यशस्वी भोजकुमारने जन्म लिया। जिससे वे अपनी अन्धावस्थाके दुःखको कुछेक भूल गये । सिंहलके अन्धे होनेका पीछेसे मुंजने बहुत पश्चात्ताप किया और भोजको अपने पुत्रके समान मानकर जब वह सर्वकलाकुशल हुआ तब उसे राज्यसिंहासनपर आरूढ करके आप एकान्तम सुखसे कालयापन करने लगा।
नाथूराम प्रेमी. अनुवादककी प्रार्थना ।
पाठक महाशय, इस ग्रन्थका जैसा महान् नाम है, वैसा ही यह ग्रन्थ भी महान् है । यह ज्ञानका अर्णव अर्थात् समुद्र और योगमार्गको सुझानेवाला प्रदीप अर्थात् उत्कृष्ट दीपक है । इसलिये इसका अनुवादन शोधनादि करना भी किसी बड़े विद्वान्का काम था । परन्तु श्रीपरमश्रुतप्रभाबकमंडलके व्यवस्थापकोंका अत्याग्रह होनेके कारण मुझ अल्पज्ञको यह कार्य करना पड़ा। तो भी इसमें मेरी स्वयंकृति कुछ भी नहीं है । स्वर्गीय पंडितवर जयचन्द्रराय (जयपुरनिवासी) जीकी ढूंढारी भाषाटीकाका यह अनुकरणमात्र है । खुशीकी बात यह है कि स्वयं पडित जयचन्द्र.. रायजीके द्वारा लिखाई हुई और खास उनकी शोधी हुई प्रथम प्रतिसे हमने यह अन्थ लिखा है। उनकी शोधी हुई प्रतिकी शुद्धताके विषयमें कहनेको कुछ आवश्यकता ही नहीं है । स्वयं टीकाकारकी हाथकी प्रति शुद्ध होनी ही चाहिये । इसके सिवाय मूल संस्कृतग्रन्थकी प्रति भी मैंने दो संग्रह की थीं, जो प्रायः शुद्ध थीं । परन्तु इतने पर भी मुझे खेद है कि यह ग्रन्थ जैसा शुद्ध छपना चाहिये था, वैसा नहीं छपा ।
इस ग्रन्थमें बहुतसे श्लोक उक्तं च कहकर ग्रन्थान्तरोंसे लिखे गये मालूम होते हैं, इसलिये मैंने उन्हें ग्रन्थसंख्या में शामिल नहीं किया है, क्योंकि मूल ग्रन्थसे वे पृथक् हैं। ___ अन्तमें इस ग्रन्थके संशोधन कार्यमें सहायता देनेवाले श्रीयुत पंडितवर्य रघुवंशजी शास्त्रीका तथा 'शुभचन्द्राचार्यका समय विचार' लेखक कविवर भाई नाथूराम प्रेमीका हृदयसे उपकार मानकर मैं अपनी प्रार्थनाको समाप्त करता है।
जैनसमाजका हितैषीदास
पन्नालाल वाकलीवाल। १ श्रीमेरुतुंगसूरिने भी सिन्धुलके नेत्र फुडवानेकी वार-लिखी है। परन्तु उसमें भी सिंधुलकी उदंडताके सिवा और कोई कारण नहीं लिखा । एक बार मुंजने सिंधुलको अपने-देशसे इसी उदंडताके कारण निकाल भी दिया था । भोजको मारनेके लिये भेजनेकी और फिर उसका लिखा हुमा मान्धाता स महीपतिरित्यादि श्लोक पढकर उसके लिये पश्चात्ताप करनेकी बात भी मेरुतुंगसूरिने लिखी है।
२ तैलंग देशके राजा तैलिपदेवकी कैदमें जाकर राजा मुंज उसीके द्वारा मारा गया । तैलिपदेवकी विधवा वहिन मृणालवतीके साथ अनुचित प्रेम करने कारण उसे यह सजा मिली। भर्तृहरि शुभचन्द्रका वाक्य सिद्ध हो गया कि वे अपने पापों का फल खयं पा लेंगे। .