SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् पुण्यात्मनां गुणग्रामसीमासंसक्तमानसैः। तीर्यते यमिभिः किं न कुविद्यारागसागरः ॥ २२॥ अर्थ-पुण्यपुरुषोंके गुणग्रामकी सीमामें जिनका मन लगाहुआ है वे मुनि क्या कुविद्यामय रागरूपी समुद्रको नहिं तिरेंगे? अवश्य तिरेंगे । क्यों कि जब सत्पुरुषोंके गुणोंमें मन लग जाता है तब अन्य पदार्थोंसे प्रीति हट जाती है ॥ २२ ॥ तत्त्वे तपसि वैराग्ये परां प्रीतिं समश्नुते। हृदि स्फुरति यस्योचैर्वृद्धवाग्दीपसन्ततिः ॥ २३ ।। __ अर्थ-जिस मनुष्यके हृदयमें सत्पुरुषोंके वचनरूपी दीपककी सन्तति (परिपाटी) प्रकाशमान है उसकी तत्त्वोंमें, तपमें तथा वैराग्यमें अतिशय उत्कृष्ट प्रीति हो जाती है।।२३ ॥ मिथ्यात्वादिनगोत्तुङ्गशृङ्गभङ्गाय कल्पितः। विवेकः साधुसंगोत्थो वज्रादप्यजयो नृणाम् ॥ २४ ॥ - अर्थ-सत्पुरुषोंकी संगतिसे उत्पन्न हुआ मनुष्योंका विवेक मिथ्यात्वादि पर्वतोंके ऊंचे शिखरोंको (विचारमें आये मिथ्यात्वादि भावोंको) खंड खंड करनेके लिये वज्रसे अधिक अजेय है ॥ २४ ॥ अप्यनादिसमुद्भूतं क्षीयते निविडं तमः । वृद्धानुयायिनां च स्यादिश्वतत्त्वैकनिश्चयः ॥ २५ ॥ अर्थ-जो वृद्धपुरुषोंके (सत्पुरुषोंके) अनुयायी हैं उनका अनादिकालका उत्पन्न निविड़ अज्ञानरूप अन्धकार नष्ट हो जाता है और समस्त तत्त्वाका अद्वितीय निश्चय हो जाता है, अर्थात् अज्ञानका लेशमात्रभी नहिं रहता ॥ २५ ॥ ____ अन्तःकरणजं कर्म या स्फोटयितुमिच्छति। स योगिवृन्दमाराध्य करोत्यात्मन्यवस्थितिम् ॥ २६ ॥ अर्थ-जो पुरुष अन्तःकरणसे (मनसे) उपजे कर्मको दूर करनेकी इच्छा करता है वह पुरुष योगीश्वरोंके समूहकी सेवा करता है और वही अपनी आत्मामै तिष्ठता है। अर्थात् योगीश्वरोंकी सत्संगतिमें रहनेसे ही आत्मानुभवकी प्राप्ति और कर्मोका नाश होता है ॥ २६ ॥ एकैव महतां सेवा स्याजेत्री भुवनत्रये। ययैव यमिनामुच्चैरन्तज्योतिर्विज़म्भते ॥ २७ ॥ " अर्थ-इस त्रिभुवनमें सत्पुरुषोंकी सेवा ही एकमात्र जयनशील (काको जीतनेवाली) है । इससेही मुनियों के अन्तःकरणमें ज्ञानरूप ज्योतिका प्रकाश विस्तृत होता है ॥ २७ ॥ __ . दृष्ट्वा श्रुत्वा यमी योगी पुण्यानुष्ठानमूर्जितम् । आक्रामति निरातङ्क: पदवीं तैरुपासिताम् ॥ २८॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy