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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अथ पञ्चदशं प्रकरणम् । आगे इस ब्रह्मचर्यमहात्रतके वर्णनमें वृद्धसेवाका वर्णन करके इस महात्रतका व्याख्यान पूर्ण करते हैं— १६६ ornaraशुद्ध भावशुद्ध्यर्थमञ्जसा । विद्याविनयवृद्ध्यर्थं वृद्धसेवैव शस्यते ॥ १ ॥ अर्थ - अनायास दोनों लोकोंकी सिद्धिके लिये, भावोंकी शुद्धता के लिये तथा विद्याविनयकी वृद्धिके लिये वृद्धपुरुषोंकी ( गुरुजनोंकी) सेवाहीकी प्रशंसा कीगई है । भावार्थ- गुरुजनोंके (बड़ोंके ) निकट रहने तथा उनकी सेवा करनेसे यह लोक परलोक सुधरता है, अपने परिणाम शुद्ध रहते हैं, विद्याविनयादिक बढ़ते हैं और मानकपायकी हानि इत्यादि गुण होते हैं ॥ १ ॥ कषायदहनः शान्तिं याति रागादिभिः समम् । चेतः प्रसत्तिमाधत्ते वृद्धसेवावलम्बिनाम् ॥ २ ॥ अर्थ- जो पुरुष वृद्धसेवा करनेवाले हैं उनकी कपायरूपी अभि रागादिसहित शान्त होजाती है और चित्त प्रसन्न वा निर्मल होजाता है. बड़ोंकी सेवासेही ये गुण होते हैं ॥ २ ॥ निश्चलीकुरु वैराग्यं चित्तदैत्यं नियन्त्रय । आसाद वरां बुद्धिं दुर्बुद्धे वृद्धसाक्षिकम् ॥ ३ ॥ अर्थ - आचार्यमहाराज यहां उपदेश करते हैं कि - हे दुर्बुद्धि आत्मा ! गुरुजनोंकी साक्षीपूर्वक अर्थात् गुरुजनोंके निकट रहकर तू अपने वैराग्यको तो निर्मल कर और संसारदेहभोगों से लेशमात्र भी राग मत कर तथा चित्तरूपी दैत्य (राक्षस) जो कि स्वेच्छासे प्रवर्तता है उसे वशमें कर और उत्कृष्ट बुद्धिको (विवेकिताको ) अंगीकार कर । क्योंकि ये गुण गुरुजनोंकी सेवा करनेसेही प्राप्त होते हैं ॥ ३ ॥ अब वृद्धोंका खरूप कहते हैं, - स्वतत्त्व निकषोद्भूतं विवेकालोकवर्द्धितम् । येषां बोधमयं चक्षुस्ते वृद्धा विदुषां मताः ॥ ४॥ अर्थ -- जिनके आत्मतत्त्वरूप कसोटीसे उत्पन्न भेदज्ञानरूप आलोकसे बढ़ाया हुआ ज्ञानरूपी नेत्र है उनकोही विद्वानोंने वृद्ध कहा है । भावार्थ - खपर पदार्थोको १ 'परां शुद्धि' इत्यपि पाठः ।
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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