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________________ ज्ञानार्णवः । अर्थ-तत्पश्चात् दोनों एकान्तस्थान पातेही निःशंक हो हास्यरूप वार्तालाप करते रहते हैं. तत्पश्चाद्दर्शन स्पर्शनादि इंघनसे उत्पन्न हुई कामामि प्रज्वलित (तीत्र) हो जाती है ॥ २० ॥ . वहिरन्तस्ततस्तेन दह्यमानोऽग्निना भृशम् । अविचार्य जनः शीघ्र ततः पापे प्रवर्तते ॥२१॥ अर्थ-तत्पश्चात् यह मनुष्य उस कामरूपी अमिसे वाह्यमें तौ शरीर और अन्तरंगमें चित्तके अतिशय दाहरूप होनेसे विना विचारेही पापकार्यमें प्रवर्त्तने लग जाता है. इसप्रकार अनुक्रमसे स्त्रीके संसर्गसे मनुप्यकी पापाचरणमें प्रवृत्ति हो जाती है ॥ २१ ॥ श्रुतं सत्यं तपः शीलं विज्ञानं वृत्तमुत्तमम् । इन्धनीकुरते मूढः प्रविश्य वनितानले ॥ २२॥ अर्थ-इसप्रकार यह मूढ प्राणी स्त्रीरूपी अग्निमें प्रवेश करके शास्त्राध्ययन, सत्यव्रत, तप, शील (ब्रह्मचर्य), विज्ञान और उत्तम चारित्र इनको इंधनकी समान जला देता हैं। अर्थात्-स्त्रीके संसर्गसे समस्त धर्म कर्म नष्ट कर देता है ॥ २२ ॥ स्फुरन्ति हृदि संकल्पा ये स्त्रीव्यासक्तचेतसां। रागिणां तानि हे भ्रातन कोऽपि गदितुं क्षमः ॥२३॥ अर्थ-हे भाई! जिन पुरुषोंका चित्त स्त्रियोंमें आसक्त है उन रागियोंके मनमें जो जो संकल्प होते हैं उन्हे कहनेको कोईभी समर्थ है? कदापि नहीं. क्योंकि कामीके मनमें क्षणक्षणमें अनेक संकल्प होते रहते हैं ॥ २३ ॥ संसर्गप्रभवा नूनं गुणा दोषाश्च देहिनाम् । एकान्ततः स दोषाय स्त्रीभिः साई कृतःक्षणम् ॥२४॥ अर्थ-सामान्यतासे संसर्गसे जीवोंके गुण दोष दोनोंही होते हैं, परन्तु स्त्रियोंके साथ जो संसर्ग क्षणभरके लियेमी कियाजाय तो वह केवल दोपोंके लियेही होता है ॥२४॥ पुण्यानुष्ठानसम्भूतं महत्वं क्षीयते नृणाम् । सद्यः कलङ्कयते वृत्तं साहचर्येण योषिताम् ॥ २५॥ अर्थ-स्त्रियों के साथ संसर्ग रहनेसे मनुष्योंका अनेक पुण्यकार्योसे प्राप्त हुआ महत्त्व (वड़प्पन) तत्काल नष्ट हो जाता है और जोबत चारित्र हैं वे कलंकित हो जाते हैं ॥२५॥ . अपवादमहापङ्के निमजन्ति न संशयः। यमिनोऽपि जगइन्द्यवृत्ता रामास्पदं श्रिताः ॥ २६ ॥ अर्थ-जो संयमी मुनि जगतसे वंदनेयोग्य चारित्रवाले हैं वे भी स्त्रीके संसर्गसे अपवादरूपी महाकर्दममें निःसंदेह डूवजाते हैं अर्थात् फँस जाते हैं ।। २६ ॥ २१
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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