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________________ ज्ञानार्णवः। १५९ नवनीतनिभं पुंसां मनः सद्यो विलीयते। वनितावह्निसंतप्तं सतामपि न संशयः॥८॥ अर्थ-पुरुषोंका मन नवनीत (मक्खन) सदृश हैं" सो स्त्रीरूपी अमिका संयोग होनेपर सत्पुरुषोंका चित्तभी चलायमान हो जाता है, इसमें कोई संशय नहीं ॥ ८ ॥ अन्तःसुप्तोऽपि जागर्ति स्मरः संगेन योषिताम् । . रोगव्रज इवापथ्यसेवासंभावितात्मनाम् ॥९॥ __अर्थ-जैसे अपथ्य सेवन करनेवाले मनुष्योंके रोगोंका समूह उत्पन्न हो जाता है, तैसेही काम है सो अन्तरंग ( मनमें ) सोता है तोभी स्त्रीके संगममात्रसे जागता है ॥९॥ क्रियते यैर्मनः स्वस्थं श्रुतप्रशमसंयमैः। तेऽपि संसर्गमासाद्य वनितानां क्षयं गताः ॥ १० ॥ अर्थ-जिन पुरुषोंने शास्त्राध्ययन, प्रशमभाव और संयमसे अपने मनको खस्थ (वशीभूत) कर लिया है वे भी स्त्रियोंके संसर्गको प्राप्त होकर नष्ट होगये हैं ॥ १० ॥ स्थिरीकृत्य मनस्तत्त्वे तावत्तिष्ठति संयमी। यावन्नितंबिनीभोगिभृकुटि न समीक्षते ॥११॥ अर्थ-संयमी पुरुष तबतकही मनको तत्त्वमें स्थिर करके रहता है जबतक कि स्त्रीरूपी सर्पकी भूकुटीको नहीं देखता है ॥ ११ ॥ यासां संकल्पलेशोऽपि तनोति मदनज्वरम् । प्रत्यासत्तिन किं तासां रुणद्धि चरणश्रियम् ॥१२॥ अर्थ-जिन स्त्रियों के संकल्पका लेश मात्र भी मनमें हो तो वह मदनज्वरको बढा देता है तो उनकी निकटता क्या चारित्ररूपी लक्ष्मीको नष्ट भ्रष्ट नहीं करेगी ? ॥ १२ ॥ __ यस्याः संसर्गमात्रेण यतिभावः कलङ्कयते । तस्याः किं न कथालापैर्भूभङ्गैश्वारुविभ्रमैः ॥ १३ ॥ अर्थ-जिस स्त्रीके संसर्गमात्रसे ही मुनिपन कलंकित होता है उसके साथ वार्ता लाप करने, भौंहके टेढेपन और सुंदर विभ्रम विलासोंके देखनेसे क्या यतिपन नष्ट नहीं होता ? अर्थात् होताही है ।। १३ ॥ सुचिरं सुष्टु निर्णीतं लब्धं वा वृद्धसंनिधौ। लुप्यते स्त्रीमुखालोकावृत्तरत्नं शरीरिणाम् ॥ १४ ॥ अर्थ-आचार्य महाराज कहते हैं कि हमने बहुत काल बडोंकी संगतिमें रहकर भले प्रकार निर्णय कर लिया है तथा यह सिद्धान्त प्राप्त किया है कि-स्त्रीके मुखावलोकन करनेसे जीवोंका संयमरूपी रन अवश्यही नष्ट होजाता है ॥ १४ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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