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________________ १५६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अर्थ हे आत्मन् ! तू ऐसा जान कि-जैसे नीच कुत्ते हाड़के चर्वण करनेसे अपनेही तालसे निकलनेवाले रक्तका पान करके प्रसन्न होते हैं कि यह रुधिर इस हाइमेंसेही निकलता है इसी प्रकार व्यभिचारी जन अपने और स्त्रीके शरीरकी विडंबनासे उत्पन्न हए सुखका सेवन करते हैं ॥ १७ ॥ · अशुचिष्वङ्गनाङ्गेषु संगताः पश्य रागिणः । जुगुप्सां जनयन्त्येते लोलन्तः कृमयो यथा ॥ १८॥ __ अर्थ-देखो, जिसप्रकार अपवित्र मलादिकमें कीड़ कलबलाहट करते हैं उसी प्रकार ये चपल कामीजन स्त्रियोंके अपवित्र अंगोंकी संगति करते हुए ग्लानिको उत्पन्न करते हैं ॥ १८॥ - योनिरन्ध्रमिदं स्त्रीणां दुर्गारमनिमम् । तत्त्यजन्ति ध्रुवं धन्या न दीना देववञ्चिताः ॥ १९॥ ___ अर्थ-स्त्रियोंका योनिरन्ध्र दुर्गतिका प्रथम ( मुख्य ) द्वार है, इस कारण उसे जो धन्य पुरुष हैं वे तो अवश्यही त्यागते हैं । किन्तु जो दीन है अर्थात् नीच हैं वे नहीं छोड़ते क्योंकि वे देवसे ठगे हुए अर्थात् अभागी हैं ॥ १९ ॥ मालतीव मृदून्यासां विद्धि चाङ्गानि योपितां। .. .. दारयिष्यन्ति मर्माणि विपाके ज्ञास्यसि खयम् ॥२०॥ अर्थ-हे आत्मन् ! तू इन स्त्रियोंके अङ्गोंको मालती पुष्पके समान कोमल जानता है, परन्तु अन्तमें जब ए तेरे मौका विदारण करेंगे तब तुझे अपने आप मालम हो जायगा । भावार्थ-तू स्त्रियोंके अंगोंको कोमल समझ स्पर्शनादि करता है, परन्तु इनके फल (दुर्गतियां) बहुतही कष्टकर होंगे-॥ २० ॥ मैथुनाचरणे मूढ नियन्ते जन्तुकोटयः । योनिरन्ध्रसमुत्पन्ना लिङ्गसंगप्रपीडिताः ॥ २१॥ अर्थ-हे मूढ ! योनिरंध्रमें असंख्यजीवोंकी कोटिकी ( समूहकी) उत्पत्ति होती है सो मैथुनाचरणसे वे सब जीव घाते जाते हैं उनकी हिंसासेही दुर्गतिमें दुःख सहने पड़ते हैं ॥ २१॥ ... बीभत्सानेकदुर्गन्धमलाक्तं स्खकलेवरम् । - यत्र तत्र वपुः स्त्रीणां कस्यास्तु रंतयें भुवि ॥ २२ ॥ अर्थ-इस पृथिवीमें जब अपनाही शरीर जहां तहां बीभत्स अनेक दुर्गन्धियों तथा मलोंसे भरा है तो फिर स्त्रियोंका -शरीर किसके रति करने योग्य हो । अर्थात् किसीको प्रीतिके अर्थ नहीं होसकता ॥ २२ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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