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________________ १४० रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् दक्षो मूढः क्षमी क्रुद्धः शूरो भीरुर्गुरुर्लघुः । तीक्ष्णः कुण्ठो वशी भ्रष्टो जनः स्यात्स्मरवञ्चितः ॥ ४० ॥ अर्थ - कामसे ठगा हुआ मनुष्य चतुरभी मूर्ख हो जाता है, क्षमावान् क्रोधी होजाता है, शूरवीर कायर हो जाता है, गुरु लघु हो जाता है, उद्यमी आलसी हो जाता है और जितेन्द्रिय भ्रष्ट हो जाता है ॥ ४० ॥ कुर्वन्ति वनिताहेतोरचिन्त्यमपि साहसम् । नराः कामहात्कारविधुरीकृत मानसाः ॥ ४१ ॥ अर्थ - कामके बलात्कार ( जबरदस्ती से ) से जिनका चित्त दुःखित है वे स्त्रीकी प्राप्तिके लिये ऐसे काम करनेका भी साहस करते हैं जो चिन्तवनमें नहिं आयें ॥ ४१ ॥ उन्मूलयत्यविश्रान्तं पूज्यं श्रीधर्मपादपम् । मनोभवमहादन्ती मनुष्याणां निरङ्कुशः ॥ ४२ ॥ अर्थ — कामरूपी हस्ती निरंकुश है इसकारण वह मनुष्योंके निरन्तर पूजने योग्य धर्मरूपी वृक्षको जड़ से उखाड़ डालता है ॥ ४२ ॥ प्रकुप्यति नरः कामी बहुलं ब्रह्मचारिणे । जनाय जाग्रते चौरो रजन्यां संचरन्निव ॥ ४३ ॥ अर्थ - जिस प्रकार रात्रिमें धनार्थ फिरते हुए और जागनेवाले मनुष्यपर कोप करते हैं; उसीप्रकार कामी पुरुषभी बहुधा ब्रह्मचारी पुरुषोंपर कोप किया करता है । यह खाभा'विक नियम है ॥ ४३ ॥ षां व सुतां धात्रीं गुरुपत्नीं तपखिनीम् । तिरश्चीमपि कामात नरः स्त्रीं भोक्तुमिच्छति ॥ ४४ ॥ अर्थ — काम से पीड़ित पुरुष पुत्रवधू, सास, पुत्री, दुग्ध पिलानेवाली धाय अथवा माता, गुरुकी स्त्री, तपखिनी और तिरश्ची ( पशुजातिकी स्त्री ) को भी भोगनेकी इच्छा करता है । क्योंकि, कामी पुरुषके योग्य अयोग्यका कुछभी विचार नहिं होता ॥ ४४ ॥ किं च कामशरव्रातजर्जरे मनसि स्थितिम् । निमेषमपि बध्नाति न विवेकसुधारसः ॥ ४५ ॥ I अर्थ - हिताहितका विचार न होनेका कारण यह है कि कामके बाणोंके समूह से जर्जरित हुए मनमें निमेषमात्रभी विवेकरूपी अमृतकी बूंद नहिं ठहर सकती है । भावार्थजैसे फूटे घड़े में पानी नहिं ठहरता उसी प्रकार कामके वाणोंसे छिद्र किये हुए चित्तरूपी घड़ेमें विवेकरूपी अमृत जल नहिं ठहरता ४५ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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