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________________ १३३ • ज्ञानार्णवः । सोरठा।. जो अदत्त कछु लेत, ताको सगो.न कोइ है। . गुणनि जलांजलि देत, नरकवास परभव लहै ॥१॥ इति श्रीज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे अस्तेय-महाव्रतप्रकरणम् ॥ १० ॥ अथ ब्रह्मचर्यमहाबतप्रकरणं । आगे ब्रह्मचर्यमहाव्रतका निरूपण करते हैं विन्दन्ति परमं ब्रह्म यत्समालम्ब्य योगिनः । तद्वतं ब्रह्मचर्य स्याद्वीरधौरेयगोचरम् ॥ १॥ अर्थ-जिस व्रतका आलंबन करके योगीगण परब्रह्म परमात्माको जानते हैं अर्थात् उसे अनुभवते हैं. और जिसको धीरवीर पुरुषही धारण कर सकते हैं। किंतु सामान्य मनुष्य धारण नहिं कर सकते, वह ब्रह्मचर्य नामका महाव्रत है ॥१॥ समपञ्चं प्रवक्ष्यामि ज्ञात्वेदं गहनं व्रतम् । खल्पोऽपि न सतां क्लेशः कार्योऽस्यालोक्य विस्तरम् ॥२॥ अर्थ-आचार्य महाराज कहते हैं कि मैं इस व्रतको गहन जानकर विस्तारके साथ कहूंगा; परन्तु सत्पुरुषोको इसके विस्तारको देखकर खल्पभी क्लेश न करना चाहिये ॥२॥ ___ एकमेव व्रतं श्लाध्यं ब्रह्मचर्य जयत्रये । यदिशुद्धिं समापन्नाः पूज्यन्ते पूजितैरपि ॥३॥ अर्थ-इन तीन जगतोंमें ब्रह्मचर्यनामका व्रत ही प्रशंसा करने योग्य है. क्योंकि जिन पुरुषोंने इस व्रतकी निर्मलता निरतिचारतापूर्वक प्राप्त की है वे पूज्य पुरुषोंके द्वारा भी पूजे जाते हैं । भावार्थ-अर्हन्त भगवान् ब्रह्मचर्यकी पूर्णताको प्राप्त हुए हैं, अतः उनकी पूजा मुनि और गणधरादिक सवही पूज्य पुरुष करते हैं ॥ ३ ॥ ब्रह्मत्रतमिदं जीयाचरणस्यैव जीवितम् । स्युः सन्तोऽपि गुणा येन विना क्लेशाय देहिनाम् ।। ४ ।। ' अर्थ-आचार्य महाराज आशीर्वादपूर्वक कहते हैं कि यह ब्रह्मचर्यमोनो महव्रत जयवन्त हो । क्योंकि यह चारित्रका तो एकमात्र जीवन है और इसके विना अन्य जितने गुण हैं वे सब जीवोंको क्लेशकेही कारण होते हैं ॥ ४ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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