SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् पुण्यानुष्ठानजातानि प्रणश्यन्तीह देहिनाम् । परवित्तामिषग्रासलालसानां धरातले ॥६॥ अर्थ-इस पृथिवीमें परधनरूपी मांसके ग्रासमें आसक्त जनोंके पुण्यरूप आचरणोंके समूह इसी लोकमें नष्ट हो जाते हैं । भावार्थ-चोरी करनेवालेके आचरण उत्तम नहिं रहते ॥ ५॥ . परद्रव्यग्रहातस्य तस्करस्येह निर्दया ।। गुरुबन्धुसुतान्हन्तुं प्रायः प्रज्ञा प्रवर्तते ॥६॥ अर्थ-परद्रव्यका ग्रह कहिये ग्रहण करना अथवा परद्रव्यरूपी पिशाचसे पीड़ित चोरके गुरु, भाई और पुत्रको मार डालनेकी निर्दयरूप इच्छा प्रायः हो जाया करती है। भावार्थ-चोरको किसीको मारनेमें दया नहिं होती ॥ ६ ॥ हृदि यस्य पदं धत्ते परवित्तामिपस्पृहा । करोति किं न किं तस्य कण्ठलग्नेव सर्पिणी ॥७॥ अर्थ-जिस पुरुषके हृदयमें परधनरूप मांसभक्षणकी इच्छा थान पालेती है वह उसके कंठमें लगीहुई सर्पिणीके समान है, और वह क्या क्या इच्छा नहिं करती ! अर्थात् संवही अनिष्ट करती है ।। ७ ।। . चुराशीलं विनिश्चित्य परित्यजति शङ्किता। वित्तापहारदोपेण जनन्यपि सुतं निजम् ॥ ८॥ अर्थ-जिसका खभाव चोरी करनेका हो जाता है ऐसे अपने पुत्रको माताभी यह जानकर अपने धन हरेजानेके भयसे भयभीत होकर छोड़ देती है । अन्यकी तो कथाही क्या ? ॥ ८॥ भ्रातरः पितरः पुत्राः स्वकुल्या मित्रवान्धवाः । संसर्गमपि नेच्छन्ति क्षणार्द्धमिह तस्करैः ॥९॥ अर्थ-भाई, पिता, पुत्र, निजस्त्री, मित्र तथा हितू आदि कोईभी चोरका संसर्ग क्षणभरके लिये नहिं चाहते, अर्थात् चोरका कोईभी सगा (संघाती) नहिं होता ॥ ९॥ न जने न वने चेतः खस्थं चौरस्य जायते । मृगस्येचोखतव्याधादाशङ्कय वधमात्मनः॥१०॥ अर्थ-चोरका चित्त न तो मनुप्योंमें बैठनेपर स्थिर रहता है और न वनहीम नि श्चिन्त रहता है. जैसे किसी मृगके पीछे शिकारी लग जाय तो अपना घात होनेके भयसे उसका चित्त ठिकाने नहिं रहता, उसी प्रकार चोरकोभी अपने पकड़े जानेका भय निरंतर रहा करता है ।। १०॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy