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________________ ११२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ___ अर्थ. यह हिंसाही नरकरूपी घरमें प्रवेश करनेके लिये प्रतोली (मुख्य दरवाजा) है. तथा जीवोंको काटनेके लिये कुठार (कुल्हाड़ा) और विदारनेके लिये निर्दयरूपी शूली है ॥ १३ ॥ क्षमादिपरमोदारैर्यमैों वर्द्धितश्विरम् । हन्यते स क्षणादेव हिंसया धपादपः॥ १४ ॥ अर्थ--जो धर्मरूप वृक्ष उत्तम क्षमादिक परम उदार संयमोंसे बहुत कालसे बढ़ाया है वह इस हिंसारूप कुठारसे क्षणमात्रमें नष्ट हो जाता है । भावार्थ-जहां हिंसा होती है वहां धर्मका लेशमी नहीं है ॥ १४ ॥ तपोयमसमाधीनां ध्यानाध्ययनकर्मणां। तनोत्यविरतं पीडां हृदि हिंसा क्षणस्थिता ॥१५॥ अर्थ- हृदयमें क्षणभरभी स्थान पाई हुई यह हिंसा तप, यम, समाधि और ध्यानाध्ययनादि कार्योंको निरंतर पीड़ा देती है । भावार्थ-क्रोधादि कपायरूप परिणाम ( हिंसारूप परिणाम) किसी कारणसे एकवार उत्पन्न हो जाता है तो उनका संस्कार (स्मरण) लगा रहता है । वह तप, यम, समाधि और ध्यानाध्ययनकार्योमें चित्तको नहीं ठहरने देता, इस कारण यह हिंसा महा अनर्थकारिणी है ॥ १५ ॥ अहो व्यसनविध्वस्तैर्लोकः पाखण्डिभिर्वलात् । नीयते नरकं घोरं हिंसाशास्त्रोपदेशकैः ॥१६॥ अर्थ-आचार्य महाराज आश्चर्यके साथ कहते हैं कि देखो! धर्म तो दयामयी जगतमें प्रसिद्ध है परन्तु विषयकषायसे पीडित पाखण्डी हिंसाका उपदेश देनेवाले (यज्ञादिकमें पशुहोमने तथा देवी आदिके बलिदान करने आदि हिंसाविधान करनेवाले) शास्त्रोंको रचकर जगतके जीवोंको बलात्कार नरकादिकमें ले जाते हैं। यह बड़ाही अनर्थ है ॥ १६ ॥ रौरवादिषु घोरेषु विशन्ति पिशिताशनाः। तेष्वेव हि कर्थ्यन्ते जन्तुघातकृतोद्यमाः ॥१७॥ अर्थ-जो मांसके खानेवाले हैं वे सातवें नरकके रौरवादि बिलोंमें प्रवेश करते हैं और वहींपर जीवोंको घात करनेवाले शिकारी आदिक भी पीडित होते हैं । भावार्थजो जीवघातक मांसभक्षी पापी हैं, वे नरकमें ही जाते हैं । और जो जीवघातको ही धर्म मानकरके उपदेश करते हैं वे अपने और परके दोनोंके घातक हैं; अतः वे भी नरकहीके पात्र हैं ॥ १७ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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