SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् व्यसनघनसमीरं विश्वतवैकदीपं विषय फरजालं ज्ञानमाराधय त्वं ॥ २२ ॥ अर्थ - हे भव्यजीव ! तू ज्ञानका आराधन कर । क्योंकि ज्ञान पापरूपी तिमिर (अंधकारको) नष्ट करनेके लिये सूर्यके समान है, और मोक्षरूपी लक्ष्मीके निवास करनेके लिये कमलके समान है, तथा कामरूपी सर्पके कीलनेको मंत्रके समान और मनरूपी हस्तीको सिंहके समान है, तथा - व्यसन आपदा कष्टरूपी मेघोंको उड़ानेके लिये पवनके समान और समस्त तत्त्वोंको प्रकाश करनेके लिये दीपकके समान है तथा विपयरूपी मत्स्योंको पकड़नेके लिये जालके समान है ॥ २२ ॥ अब ज्ञानके प्रकरणको पूर्ण करते हुए कहते हैं, -- स्रग्धरा । अस्मिन्संसारकक्षे यमभुजगविषाक्रान्तनिःशेषसत्वे क्रोधाद्युङ्गले कुटिलगतिसरित्पातसन्तापभीमे । मोहान्धाः संचरन्ति स्खलनविधुरिताः प्राणिनस्तावदेते यावद्विज्ञान भानुर्भवभयदमिदं नोच्छिनत्त्यन्धकारम् ॥ २३ ॥ अर्थ- —जबतक इस संसाररूपी बनमें यह सम्यग्ज्ञानरूपी सूर्य संसाररूप भयके देनेवाले अज्ञान अन्धकारका उच्छेद नहीं करता तबतकही मोहसे अंधे हुए प्राणी अपने खरूप उत्तम मार्गसे छूटने से गिरते पड़ते पीड़ित हुए चलते हैं । कैसा है संसाररूपी बन ? जिसमें कि-पापरूपी सर्पके विषसे समस्त प्राणी व्याप्त हैं अर्थात् दवे हैं. तथा - क्रोधादिक पापरूपी बड़े २ ऊंचे पर्वत हैं । और वक्र गमनवाली दुर्गतिरूपी नदियोंमें गिरनेसे उत्पन्न हुए सन्तापसे अतिशय भयानक हैं । ज्ञानरूपी सूर्यके प्रकाश होने से किसी प्रकारका दुःख वा भय नहीं रहता । इस प्रकार सम्यग्ज्ञानका वर्णन किया ॥२३॥ दोहा । सम्यक दर्शन पाइकै, ज्ञानविशेष बढ़ाय । चारितकी विधि जानिके, लागौ ध्यान उपाय ॥ १॥ इति श्रीज्ञानार्णवे श्रीशुभचंद्राचार्यविरचिते योगप्रदीपाधिकारे सम्यग्ज्ञानप्रकरणं नाम सप्तमः सर्गः ॥ ७ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy