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________________ १०५ ज्ञानार्णवः । देवनारकयो यस्त्ववधिर्भवसम्भवः । षडिकल्पश्च शेषाणां क्षयोपशमलक्षणः ॥६॥ अर्थ-देव और नारकी जीवोंको तो अवधिज्ञान भवहीसे उत्पन्न होता है । उसका कारण नरकगति वा देवगतिही है, इस कारण उसे भवप्रत्यय अवधि कहते हैं. और मनुष्य तथा तिर्यञ्चोंको जो क्षयोपशमसे होता सो छह प्रकारका होता है जैसे-अनुगामि १ अननुगामि २ हीयमान ३ वर्द्धमान ४ अवस्थित ५ अनवस्थित ६ इस प्रकार छह भेद हैं ॥ ६॥ ऋजुर्विपुल इत्येवं स्यान्मनःपर्ययो द्विधा । विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषोऽवगम्यताम् ॥७॥ अर्थ-मनःपर्ययज्ञान-ऋजुमति तथा विपुलमति भेदसे दो प्रकारका है । इन दोनोंमें विशुद्धता और अप्रतिपातकी विशेषता है ॥ ७ ॥ अशेपद्रव्यपर्यायविषयं विश्वलोचनम् । अनन्तमेकमत्यक्षं केवलं कीर्तितं वुधैः ।। ८॥ अर्थ-जो समस्त द्रव्योंके पर्यायोंको जाननेवाला है, सब जगतके देखने जाननेका नेत्र है तथा अनंत है, एक है, और अतीन्द्रिय है अर्थात् मति श्रुत ज्ञानके समान इन्द्रियजनित नहीं है, केवल आत्मासेही जानता है, उसको विद्वानोंने केवल ज्ञान कहा है ॥ ८॥ कल्पनातीतमभ्रान्तं स्वपरावभासकम् । . जगज्ज्योतिरसंदिग्धमनन्तं सर्वदोदितम् ॥९॥ अर्थ-तथा केवल ज्ञान कल्पनातीत है. विषयको जाननेमें किसी प्रकारकी कल्पना नहीं है, स्पष्ट जानता है, तथा आपको और परको दोनोंको जानता है । जगतका प्रकाशकरनेवाला, संदेहरहित, अनन्त और सदाकाल उदयरूप है तथा इसका किसी समयमें किसी प्रकारसेमी अभाव नहीं होता है ।। ९ ।। अनन्तानन्तभागेऽपि यस्य लोकश्चराचरः। अलोकश्च स्फुरत्युच्चैस्तज्योतिर्योगिनां मतम् ॥१०॥ ___ अर्थ-जिस केवल ज्ञानके अनन्तानन्त भाग करनेपरभी यह चराचर लोक प्रतिभासित होता है तथा अलोकाकाश अनन्तानन्त प्रदेशी है, यहभी प्रकट प्रतिभासता है इस प्रकार योगीश्वरोंके ज्योतिप्रकाशरूप कहा है । भावार्थ-केवल ज्ञानमें समस्त लोकालोक प्रकाशमान है । और यह ज्ञान योगीश्वरोंको ही होता है ॥१०॥ इस प्रकार सामान्य ज्ञानकी अपेक्षा तो ये पांचोही ज्ञान एक हैं, तथापि कर्मके निमि १४
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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