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________________ ज्ञानार्णवः । - ९३ एकं प्रशमसंवेगद्यास्तिक्यादिलक्षणम् । आत्मनः शुडिमानं स्यादितरच समन्ततः॥४॥" अर्थ-एक सम्यक्त्व तो प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य चिहसे चिहित है, जिसे सरागसम्यक्त्व कहते हैं। और दूसरा समस्त प्रकारले आत्माकी शुद्धिमात्र है, जिसे वीतरागसम्यक्त्व कहते हैं ॥ ४॥" द्रव्यादिकमथासाद्य तज्जीवैः प्राप्यते क्वचित् ।। पञ्चविंशतिमुत्सृज्य दोषास्तच्छक्तिघातकम् ॥८॥ अर्थ-अथवा यह सम्यग्दर्शन द्रव्य, क्षेत्र, काल भावरूप सामग्रीको प्राप्त होकर तथा सम्यग्दर्शनकी शक्तिके घात करनेवाले पच्चीस दोपोंको छोड़नेसे कचित् प्राप्त होता है ॥ ८॥ उक्तं च ग्रन्यान्तरे"मूढन्नयं मदाश्चाष्टौ तथाऽनायतनानि षट्।। __ अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोपाः पञ्चविंशतिः॥१॥" अर्थ-"तीन मूढता, आठ मद (गर्व), छः अनायतन और शंकादि आठ दोष इस प्रकार पच्चीस दोष सम्यग्दर्शनके कहे गये हैं, इनका नाम स्वरूप आदि शास्त्रोंमें प्रसिद्ध हैं. यहां ग्रन्थविस्तारभयसे नहीं लिखा गया है ॥ १॥" अब सम्यक्त्वके विषयभूत सप्त तत्त्वोंका वर्णन करते हैं, जीवाजीवास्रवा वन्धः संवरो निर्जरा तथा । .. मोक्षश्चैतानि सप्तैव तत्त्वान्यूचुर्मनीपिणः ॥९॥ अर्थ-पंडितोंने जीव, अजीव, आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सातही तत्त्व कहे हैं ॥९॥ अव इन सप्त तत्त्वोंका विशेष वर्णन करते हैं, अनन्तः सर्वदा सर्वो जीवराशिर्दिधा स्थितः। सिद्धेतरविकल्पेन त्रैलोक्यभुवनोरे ॥१०॥ अर्थ-इस तीन लोकरूपी भुवनमें जीवराशि सदाकाल सर्व (अनन्त) है, और वह दो भेदरूप है-१ सिद्ध तथा २ संसारी ॥ १० ॥ सिद्धस्त्वेकखभावास्यादृग्वोधानन्दशक्तिमान् । मृत्यूत्पादादिजन्मोत्यक्लेशपचयविच्युतः॥ ११ ॥ - अर्थ-उन दो भेदों से जो सिद्ध है, सो तो दर्शन-ज्ञान-सुख-वीर्य-सहित एक स्वभाव है, और मरण-जन्म-आदि सांसारिक क्लेशोंसे रहित है ॥ ११ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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