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________________ ज्ञानार्णवः । ८५ अर्थ --- जिस मुनिका चित्त कामभोगों में विरक्त होकर और शरीरमें स्पृहाको छोड़के स्थिरीभूत हुआ है, निश्चय करके उसीको ध्याता कहा है । वही प्रशंसनीय ध्याता' ॥३॥ सत्संयमधुरा धीरैर्नहि प्राणात्ययेऽपि यैः । त्यक्ता महत्वमालम्ब्य ते हि ध्यानधनेश्वराः ॥ ४ ॥ अर्थ-जिन मुनियोंने महान् मुनिपनको अंगीकार करके प्राणोंका नाश होते भी समीचीन संयमकी धुरीको नहीं छोड़ा है, वेही ध्यानरूपी धनके ईश्वर (स्वामी) होते हैं । क्योंकि संयमसे च्युत होनेपर ध्यान नहीं होता ॥ ४ ॥ परीषहमहायाग्रस्यैर्वा कण्टकैः । मनागपि मनो येषां न खरूपात्परिच्युतम् ॥ ५ ॥ अर्थ-जिन मुनियोंका चित्त परीषहरूप दुष्ट हस्तियों अथवा सर्पोंसे तथा ग्रामीण मनुष्योंके दुर्वचनरूपी कांटोंसे किंचिन्मात्रमी अपने खरूपसे च्युत नहीं हुआ; तथा ॥५॥ क्रोधादिभीमभोगिन्द्रे रागादिरजनीचरैः । अजय्यैरपि विध्वस्तं न येषां यमजीवितम् ॥ ६ ॥ अर्थ - जिन मुनिजनों का संयमरूपी जीवन क्रोधादि कपायरूप सर्पोंसे तथा अजेय रागादि निशाचरोंसे नष्ट नहीं हुआ; तथा ॥ ६ ॥ मनः प्रीणयितुं येषां क्षमास्ता दिव्ययोषितः । मैत्र्यादयः सतां सेव्या ब्रह्मचर्येऽप्यनिन्दिते ॥ ७ ॥ अर्थ-जिन मुनियोंके अनिन्दित ( प्रशंसनीय ) ब्रह्मचर्यके होतेहुए मनको तृप्त करनेवाली प्रसिद्ध मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ्य, ये ४ भावनारूपी सुंदर तथा समर्थ स्त्रिया हैं । अर्थात् इन भावनाओंके भावनेसे जिनके चित्तमें कामादि विकारभाव नहीं उपजते; तथा — ॥ ७ ॥ तपस्तरलतीव्राचिःप्रचये पातितः स्मरः । यै रागरिपुभिः सार्द्धं पतङ्गप्रतिमीकृतः ॥ ८ ॥ अर्थ - जिन मुनियोंने तपरूपी तीव्रअग्निकी ज्वालाके समूहमें रागादि शत्रुओंके साथ कामको डाल दिया और पतंगके समान भस्म कर दिया, तथा ॥ ८ ॥ निःसङ्गत्वं समासाद्य ज्ञानराज्यं समीप्सितम् । जगत्रयचमत्कारि चित्रभूतं विचेष्टितम् ॥ ९ ॥ अर्थ - निन्होंने निष्परिग्रहपनको अंगीकार करके तीन जगतमें चमत्कार करनेवाले तथा आश्चर्यरूप चेष्टावाले ज्ञानरूपी राज्यकी वांछा की, तथा ॥ ९ ॥ 1
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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